शिष्टाचार निभाता हुआ व्यक्ति तब जरा सा असहज होकर अपने मुख को हथेलियों के बीच छुपाता है । एक लम्बी सी उबासी के साथ अपने मुख कीअलग -अलग आकृति बनाता है।
माफ़ करियेगा कह कर अपनी झेंप को मिटाता है।
कितनी सामान्य सी लगती है न यह बात ,कहतें हैं जब व्यक्ति ऊबता है तब उबासी लेता है। उबासी के सहारे अपनी बोरियत दिखाता है। यह भी हमेशा ही शोध का विषय रहा है, चिकित्सा जगत और वैज्ञानिकों ने अपना अपना दृष्टिकोण रखा है।
हमने सिर्फ और सिर्फ लेखक के दृश्टिकोण को अपनाया, खुद को उबासी लेता हुआ देख कर अपनी कलम को चलाया।
बड़े बड़े ऑडिटोरियम गवाह रहे हैं , राजनीतिक सभाओं और वैचारिक गोष्ठियों के समय उबासी की बात के।
लिखते लिखते ही मेरी कलम ने भी लम्बी उबासी ली, तुरंत ही चैतन्य हो कर बोली, आप व्यर्थ में ही अपनी बात को लम्बा खींच रही है।
सीधे सीधे मुद्दे पर आईये उबासी शब्द के सम्मान में, कुछ लिखकर दिखाईये।
हिंदी भाषी प्रदेश का वासी होने के कारण, सामान्य बोलचाल की भाषा के अतिरिक्त लोकभाषा और लोकबोली ने उबासी को, अलग अलग शब्द भी दिए हैं।
आश्चर्यजनक सी लगती है यह बात , उबासी की सौगात सिर्फ मनुष्यों को ही नहीं मिली है। पशु पक्षियों में भी यह गुण पाया जाता है। घर में रहने वाले पालतू जानवरों की उबासी , पालने वाले को भी उबासी लेने पर मजबूर कर जाती है।
मानो या न मानो लेखक वर्ग बड़ी दूरदृष्टि रखता है। ऊँघते अनमने जंगल की बात को भी लेखक की कलम ने ही बताया। “सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल” जैसी रचना को जनसमुदाय के बीच में पहुंचाया। शायद! सम्माननीय लेखक श्री भवानी प्रसाद मिश्र जी ने, अपनी कल्पना के संसार में,जंगल को उबासी लेते हुए भी देखा होगा।
हम सभी की बहुत बड़ी मजबूरी है कार्य करते हुए भी, आरामतलबी के साथ उबासी लेना भी जरूरी है। कार्यस्थलों पर ओहदा कितना भी ऊंचा हो या नीचा, गर्मी की तपती दुपहरी में पंखे ,कूलर या एयर कंडीशनर की ठंडी हवा उबासी लेने पर मजबूर करती है।
पता नहीं कैसा शारीरिक अलार्म है जो, सुस्ती को दिखाता है।
कहीं और कभी इंसान कुछ पलों के लिए ही सही निद्रा देवी की गिरफ्त में पलक झपकाता हुआ नज़र आता है। सार्वजनिक परिवहनों और ऑफिस में, असहज स्थिति को झेलता हुआ समझ आता है।
मौसम कैसा भी हो उबासी लेने के लिए, कोई न कोई बहाना मिल ही जाता है।
गर्मियों की दोपहरी की बात छोड़िये जनाब ! सर्दियों की गुनगुनी धुप में भी इंसान, उबासी लेता हुआ नज़र आता है। मानव स्वभाव आलस्य को नजरअंदाज कर के, सुस्ती का आरोप गर्म कपड़ों और रजाई कम्बल पर लगाता हुआ दिख जाता है।
फ़िलहाल इरादा हमारा सिर्फ इतना है,अपने विचारों को रचना के भीतर समेटना है।
कर्मभूमि पर उबासी के अलार्म को जरा दूर भगाइये। छात्र – छात्रा हो या किसी ऑफिस के कर्मचारी हों , या हो आपके कन्धों पर घर गृहस्थी की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी।
जरा सा अपनी आँखों पर ,ठंडे पानी के छींटे तो डालकर आइये। गर्मागर्म कॉफी या चाय की चुस्कियां लीजिये।
उबासी जैसी संक्रामक सी चीज को, खुद से और अपने आसपास के जीव से दूर कीजिये।
एक बार फिर से पूरे जोश के साथ, अस्त व्यस्त से काम – काज को ध्यानपूर्वक समेटिये।
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