दारा शिकोह और परदेशी हक़ीम
दारा शिकोह ने भी अपने लिए जहाँनाबाद में एक हवेली बनवायी थी। जिसके नीचे चार बड़े – बड़े कमरे हैं। वहां गर्मी के मौसम में आराम से बैठकर पढ़ा -लिखा जा सकता है। ऊपरी हिस्से की खिड़कियाँ कमरों को ठंडा रखने के काम आती हैं। उनपर खस की चटाइयाँ लगा दी जाती हैं। जब शाहजादा वहाँ जाता है ,तब गुलाम उन खस की चटाइयों को तर करते रहते हैं।
दारा आगे बढ़ने को हुआ तो देखा कि गली के मुहाने पर आकर जो खड़ा हुआ ,वह था इंग्लिस्तान का राजदूत गेब्रियल ब्राउटन।
उसने झुककर दारा को कोर्निश की , दारा ने हँसकर उसे पकड़कर सीधा किया और कहने लगा ये क्या कर रहे हैं आप ? आप सिर्फ दूत नहीं हैं।
ब्राउटन बहुत दिनों से मुग़ल दरबार में आना जाना कर रहा था। कठिन बीमारियों में हमेशा उसे इलाज के लिए बुलाया जाता था। अभी भी शायद जनाना महल से किसी का इलाज करके वापस आ रहा था। ब्राउटन ने टूटी फूटी फ़ारसी में कहा आपका कहना ठीक है, मै मुग़ल सल्तनत में एक परदेसी हकीम भी हूँ।
शाहजादे के चेहरे पर मुस्कुराहट ने अपना कब्ज़ा जमा लिया। उसे पता था इस फुर्ती पसंद अंग्रेज को , हमेशा ही खाने पीने की तकलीफ रहती है। खाने – पीने की चर्चा छेड़ने पर वह घंटों बोल सकता है। जाने कैसे इतने दिनों से बिना भरपेट खाये ,लम्बी चौड़ी कद काठी के साथ इधर उधर घूमता रहता है।
दारा पूछ बैठा – ” क्या जहाँनाबाद में भी आगरे की तरह ही हालात हैं ? या आपको अपना पसंदीदा खाना मिल रहा है ?
प्रश्न सुनते ही ब्राउटन सीधा खड़ा हो गया –
हिंदोस्तान में ब्रॉउटन का अलग ही स्थान है। दूत होने के अलावा वह एक जाना – माना हकीम भी है। इस कारण से उसकी अच्छी कमाई भी होती है। शाही खजाने से हर महीने उसे दस अशर्फियाँ भी मिलती हैं। मरीजों के द्वारा दी जाने वाली भेंट के तौर पर, इससे ज्यादा ही मिल जाता है।
गहरी साँस लेकर ब्रॉउटन बोला – “मैं अच्छा कमाता हूँ ,कंजूस भी नहीं हूँ शाहजादे ! फिर भी कभी कभी यह हाल होता है की पेट भरने को खाना ही नहीं मिलता।
दुकानों पर जाकर कुछ खाना मुमकिन ही नहीं। धूल और मक्खियाँ छेंक लेती हैं। कुछ खा ही नहीं सकते ,यहाँ के चूल्हे भी ठीक नही हैं ,इसलिए अच्छी रोटियाँ भी नही बनती ,ठीक से सिंकी ही नही होती।
शाहजादे ने आगे बढ़ने के लिए पाँव उठाया लेकिन आगे बढ़ नही सका ,ब्रॉउटन चुप नही हुआ था। आगे बोलने लगा – बाजार में जो पका पकाया खाना मिलता है ,उसे विश्वास करके खाया नही जा सकता। न जाने कैसा गोश्त है ,किसका गोश्त है ?इसलिए मैं बहुत देख सुनकर गोश्त खरीदता हूँ ,खरीद कर घर पर ही बनवाता हूँ।
ब्रॉउटन अभी भी अपने ही खाने का किस्सा सुनाने पर तुला हुआ था। बोला – सेब ,अखरोट , पिस्ता , बादाम ,,खुबानी ,अनार ,अंगूर ,तरबूज अनेक फल मिलते हैं। लेकिन अच्छे तरबूज तब तक बाजार में बिकना नही शुरू होते। जब से हिंदोस्तान आया हूँ ,खाना कहते समय तरबूज खाने की आदत पड़ गयी है।
बस एक ही अच्छाई है ,आम इन दिनों सस्ता है। मैं तो दोनों वक़्त आम खाता हूँ शाहजादे !
मेरी बातों का आप गलत अर्थ मत लगाइयेगा शाहजादे। अगर ठीक ठाक नक्शा खींच सकूँ तभी आप समझ सकेंगें।
हमारे लिए तो खाने का साथी शराब है। वह भी शाहजहाँनाबाद की एक ही दुकान में मिलती है। और कहीं मिलती भी नही ; जबकी शराब काफी मिल सकती है। देशी अंगूर से हिंदोस्तान में अच्छी शराब तैयार होती है ,फिर भी वह बाहर दुकानों में नही बिकती।
असल में शास्त्रों में ,शरीयत में शराब पीना मना जो है।
दारा ठहाका मारकर हँसने लगा , अपने क़दमों को आगे बढ़ाते हुए बोला ” इसके लिए अब क्या किया जाये – यह ठहरा हिंदोस्तान !