कभी कभी जब किसी साहित्य का, साथ होता है
पढ़ने मे इंसान मशरूफ रहता है ।
कुछ शब्द ऐसे होते हैं,जो बार बार उपयोग मे आते हैं ।
शायद इसी कारण से दिमाग मे,अंकित हो जाते हैं ।
अपनी उपस्थिति से दिमाग को, सवालों मे उलझाते हैं ।
ऐसा ही एक शब्द “सर्वमंगला” है ।
जो बार बार मुझे उलझाता हैं ।
“सर्वमंगला” मतलब, सब का मंगल करने वाला ।
“मंगल दायिनी” है,”आस्तिक बुद्धि”।
इस बात को विद्वानों और,सयानों ने भी माना है ।
न तो धन सर्व मंगलकारी है ।
न तो बल सर्व मंगलकारी है ।
सही तरीके से उपयोग न करने पर
दोनो ही दुखदायी है ।
आस्तिक बुद्धि के साथ ही
धन और बल, स्वहितकारी और सर्वमंगला है ।
सिर्फ धन को सर्वमंगला, और सुखदायी मानना उचित है क्या?
सिर्फ बल को हर्षदाता या, दर्प का विषय मानना उचित है क्या?
उचित अनुचित का फेर सिर्फ और सिर्फ
आस्तिक बुद्धि ही बता सकती है ।
सवालों के चक्रव्यूह से बाहर लाने मे अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है ।
धन और बल के माध्यम से अर्जित हर्ष
सिर्फ और सिर्फ अहम् का तुष्टिकरण कर सकता है ।
दिमाग, सर्वमंगला के फेर मे पड़ गया ।
अनसुलझे से सवालों के बीच मे उलझ गया ।
सोचती हूं बार बार
जीवन की राह मे
जीवन को जीने की आपाधापी मे ।
क्या है सर्वमंगला ?
व्यक्ति का ईमान ?
व्यक्ति का विश्वास ?
धन और बल का असीमित सैलाब ?
या विश्वास के साथ,मेहनत का हाथ ?
या सुलझे हुये सवालों के साथ,जीवन का साथ ?
शायद जीवन के सफर मे हर व्यक्ति के लिये, सर्वमंगला का पैमाना अलग-अलग होता होगा
ये हैं मेरे अपने विचार
विचारों के साथ उलझी हुई कलम से ,निकले हैं ये अल्फाज़ ।
आप बताइये ,आप का क्या है जवाब ?
हमारी कलम से उठा है
आज ये महत्वपूर्ण सा सवाल ।