बहुमंजिली इमारतों से घिरे शहर, सच मे माचिस के डिब्बों के समान ही लगते हैं…..
गगन को छूने की कोशिश करती हुयी इमारतें, अपने भीतर बंद इंसानों के मूलभूत स्वभाव को भी, परिर्वतित करने की क्षमता रखती हैं…..
अजीब सी कशिश होती है इन शहरों मे,खिंचा चला आता है इंसान इन शहरों की तरफ ,अपने जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश मे……
आमतौर पर फ्लैट हों या कोठियों के बंद दरवाजे और खिड़कियाँ, उन्हीं के अंदर सिमट जाती है इंसानों की जिंदगी, अपने अपने कार्यक्षेत्र से आने के बाद…..
आधुनिक जीवन शैली ने, तारों के मकड़जाल मे उलझा सा दिया है इंसान को……
सुबह से अपनी महत्वाकांक्षाओं को, पूरी करने की कोशिश मे जुटा हुआ इंसान ….
अपनी कल्पनाओं और इच्छाओं के संसार मे, पंखों को फैलाकर अनंत व्योम मे विचरने को आतुर सा लगता है…..
सामान्यतौर पर घर से बाहर की बालकनी हो या, चलती हुई सड़क हो ……..
आकाश को छूने की कोशिश करती हुई इमारतों को देखकर…..
महानगरीय सोच और समझ को केंद्र मे रखकर…..
इसी तरह के विचारों मे ‘अनुभा’डूब जाया करती थी…..
होते होंगे महानगरों की भीड़ मे भी “अनुभा”की तरह के सोच और विचार वाले व्यक्ति भी…. लेकिन सफलता के पीछे भागने की कोशिश मे भेड़चाल को अपनाना,जैसी बातों को देखकर …..
दिखावे से भरे समाज से ज़रा सा, उचट सा जाता था “अनुभा” का मन…..
आफिस जाने से पहले और,आफिस से आने के बाद,उसका ज्यादातर समय, अपनी मूलभूत जिम्मेदारियाँ पूरी करने के बाद…..
पार्क की हरियाली के बीच मे या, बालकनी मे लगे हुये पौधों के बीच मे गुजरता था…..
छोटे बड़े गमलों को मिला कर ,अगर गिनती करो तो ,कम से कम सौ गमले तो होंगे…..
टाप फ्लोर का घर होने का, सबसे बड़ा फायदा मिल रहा था ‘अनुभा’ को….
कई बार जले भुने लोगों ने, सोसायटी आफिस मे शिकायत भी दर्ज करायी कि, छत पर जाने का रास्ता सँकरा हो जाता है, गमलों के कारण…..
लेकिन गलियारों और सीढ़ियों पर रखे अपने घरों के अनुपयोगी सामान को, शायद अपनी पैनी निगाहों से देखना भूल जाते थे…..
आखिरकार ये निर्णय हुआ कि,पर्यावरण प्रदूषण के इस दौर मे, पौधे लगाना गलत नही है…. क्योंकि घर टाप फ्लोर का है,इसलिये सामान्यतौर पर आने जाने का रास्ता भी बाधित नही होता…..
अपने से लगते थे, गमलों मे लगे हुये पौधे और बेल…..
पौधों को देखकर ऐसा लगता था, मानो कभी हट कर रहे हों,कभी प्यार जतला रहे हों,कभी बातें कर रहे हों……
कभी तो ऐसा लगता,मानो प्यारी सी नन्ही सी पत्ती या फूल को, अपनी घनी सी लेकिन कोमल सी शाख के भीतर,छुपा कर रखे हों…..
कभी कोई कोमल सी पत्ती या नन्हा सा फूल, खिलखिलाते हुए अचानक से नज़र आते…..
तब अनुभा के चेहरे की खुशी देखते बनती थी….
कुछ महीने पहले की ही तो बात थी,अचानक से उसकी नज़र, अपने पांव को गमले की सीमा से बाहर फैलाते हुये पौधे की तरफ पड़ गयी….
पत्तियाँ और शाखायें वैसे तो खुश नज़र आ रहे थे,लेकिन अपनी जड़ों को जमीन के भीतर फैलाने की जगह तलाशते हुये नज़र आ रहे थे…..
पूरी की पूरी दो शाम गुज़र गयी ,कंक्रीट के जंगल के शहर मे,उस पौधे के लिये उचित जगह की तलाश मे…..
रोप दिया था उसने उस नन्हे पौधे को, दूर तक फैली हुई कच्ची जमीन मे…..
कई महीनों के बाद , सुबह सुबह घूमते समय उसकी नज़र उस नन्हे पौधे पर पड़ी…
आश्चर्य के साथ उसकी आँखें खुली की खुली रह गयी….
नन्हा सा कहाँ रह गया था वह पौधा……
फैला लिया था उसने अपने पैरों को जमीन के भीतर दूर तक, और अपनी शाखाओं को चारो तरफ…..
बहुत सारी हरी हरी पत्तियों के बीच मे, धवलता से भरे हुये सफेद फूलों के साथ गर्व और स्वाभिमान के साथ, खड़ा हुआ दिख रहा था ……
ऐसा लग रहा था मानो ,अपनी शाखों पर लगी हुई पत्तियों को हिला कर, शुक्रिया बोल रहा हो
अपने उत्तरोत्तर विकास के लिये ……
कहीं कोई बनावटीपन नही,कोई छलावा नही, दिखावे का नामोनिशान नही……
प्रकृति का प्रतिनिधि ही तो लग रहा था….अपने चेहरे को मुस्कान के साथ सजाते हुये….. “अनुभा” भी अपने निर्णय पर गर्व महसूस करते हुये …अपनी खुशी को बांटने के लिए अपने घर की तरफ मुड़ चली……
(सभी चित्र internet से )