दारा शिकोह की काबुल यात्रा
इस बार जाड़े में शाहज़ादा दारा – शिकोह काबुल जा रहे थे ,और मन ही मन खुद से बातें कर रहे थे –
” वास्तव में बादशाह अब एक हिन्दोस्तानी हैं। “
हिन्दोस्तान के उत्तर में कई तरह की बोली ,बोली जाती है। आगरा ,दिल्ली ,इलाहबाद के लोग ज्यादातर खड़ी बोली में बात करते हैं ,गाने गाते हैं। कानपूर ,फतेहपुर ,जौनपुर की बोली में ज़रा सा फर्क है। थोड़ा मरोड़ कर बोला जाता है।
लेकिन यहीं पर आगरे के किले के भीतर जो भाषा बोली जाती है ,उसे फ़ारसी कहते हैं। शाही बोली है यह ,यहाँ रहते हैं तुर्क ,ईरानी ,अफगानी और कुछ हैदराबादी जो अपने साथ उस बोली को लेकर आये थे। अपने साथ और भी बहुत कुछ लाये हैं – विदेशी पोशाकें ,घोड़े ,सिपाही ,इत्र ,खाने -पीने की आदतें ,फल – फूल और गाने के सुर ,बात करने का लहज़ा।
इनमे से बहुत से लोग ऐसे हैं जो सालों से यहीं है। यहाँ शादी की है ,घर बसा लिया है। यहाँ के रहन -सहन और खान – पान को अपना लिया है।
फल-फूल, इत्र ,गीत ,भाषा और खानपान की मिलावट हो गयी है हिन्दोस्तान के खान – पान के साथ। और इस तरह से एक नई दुनिया का जन्म हुआ है हिन्दोस्तान के भीतर।
दारा शिकोह के विचारों की उथल – पुथल उनके चेहरे पर ,नादिरा बेगम के द्वारा आसानी से देखी जा रही थी – महत्वपूर्ण बात यह थी की इस नई दुनिया के अगुआ खुद बादशाह थे। ब्याह कर लायी गयी हिन्दू लड़कियों के साथ ,उनके खानपान बात व्यहवार को भी अपनाने के बाद, खुद को चगताई खानदान का कहते हैं।
शाहज़ादा दारा के साथ नादिरा बेगम भी थीं। खूबसूरती और कोमलता की अद्भुत सौगात थीं नादिरा बेगम। रावलपिंडी पार करते ही नादिरा बेगम की तबियत ठण्ड के कारण खराब होनी शुरू हो गयी। सामने पेशावर था। गरम पानी चमड़े की पेटियों में भरकर बाँदियाँ दे गयी थीं।
इस वक़्त घोड़ागाड़ी थल चेटियाल के पहाड़ी रस्ते से गुजर रही थी , और बाहर रुई के फाहे की तरह बर्फ गिर रही थी। सारी दोपहर बारिश हुई थी ,अब शाम से ही अँधेरा हो गया था। गाड़ी के दोनों तरफ चल रहे घुड़सवार ऊपर से नीचे तक खुद को ढँककर ,सावधानी से चल रहे थे। फिसलन वाला पहाड़ी रास्ता है। शाहजादे ने पर्दा हटाकर हाथ बाहर फैला दिया। बर्फ का एक फाहा हथेली पर पड़ा।
दारा -शिकोह ने आगे बात करते हुए कहा – जानती हो नादिरा ,इसी तरह के रास्ते से मै पहली बार लाहौर से रावल पिण्डी आया था।। मै तब दस साल का था और औरंगजेब सात साल का था। उन दिनों रावल पिण्डी के किले के बादशाह जहाँगीर थे। उधर अब्बा हुज़ूर ने बगावत कर रखी थी। हिन्दोस्तान भर के मैदानों ,पहाड़ों,जंगलों में शाही सेना उन्हें खदेड़ती फिर रही थी।
भागते – भागते नासिक पहुंचे थे। वहीँ उन्होंने तम्बू गाड़ा था।
नादिरा बेगम ,सोच – विचार की मुद्रा से बाहर आते हुए बोलीं ,”नसीब का चक्का भी अजीब है शहज़ादे ! ऊपर नीचे घूमता रहता है , इस बात को हर किसी ने माना है।”
रास्ते की तीव्र ठण्ड ने नादिरा बेगम की तबियत खराब कर दी थी। तपते हुए माथे के साथ अपनी आँखों को बंद करके सोने की असफल कोशिश करते हुए नादिरा बेगम ने अपने शब्दों को विराम दिया।
दारा ने घोड़ागाड़ी का पर्दा हटाया ,बाहर हल्की बरसात हो रही थी। ऐसी बरसात को झीरी बरसात कहते हैं।
सब कुछ नसीब की बात है। बादशाहे दुनियादारी के दो शाहजादे हैं। पहले शाहजादे का नाम है नसीब और दूसरे शाहजादे का नाम है ताकत।
एक का काम है सबकुछ देखो और जोर जोर से हँसो। दूसरे का काम है ताकत के बल पर दुनिया पर कब्ज़ा करना।
यह बोलते – बोलते दारा शिकोह ने घोड़ागाड़ी का पर्दा ठीक किया ,कहीं रुई के फाहे जैसी बर्फ के साथ बारिश की बूँदें भी न भीतर आ जायें।