हमारे विचार से जीवन के अतीत की यात्रा ही इतिहास कहलाती है। कहते हैं वर्तमान में जीना और अतीत को बिसराना ही, श्रेयस्कर होता है।
लेकिन यदि ऐतिहासिक रूचि है तो, इतिहास का पन्ना पलटना और पढ़ना भी रोमांच प्रदान करता
है।
समाचार पत्र में “शाहजादा दाराशिकोह” से जुड़ी हुई खबर ने ,हमे भी ऐतिहासिक उपन्यास के पास पंहुचा दिया और ,मुगलिया सल्तनत के शाहजादे के अलग ही व्यक्तित्व से परिचय करा दिया।
साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत यह उपन्यास पढ़ते समय धैर्य मांगती है। फ़ारसी के शब्दों की बहुलता है।
कुछ बातें और घटनाये रोचक ढंग से बताई गयी हैं ,जिन्हें अपने शब्दों में छोटे -छोटे भागों में हमने ऐतिहासिक उपन्यास से प्रेरित होकर लिखा है –
( भाग – 1 )
“नई राजधानी शाहजहाँनाबाद धीरे -धीरे सिर उठा रही थी। दिल्ली में जमुना के किनारे ,देश – विदेश से पत्थर लाकर इकट्ठा किया जा रहा था।
लालकिला के भीतर दीवान -ए -आम की छत पर विदेशी पत्थर लगे हैं ,जिनपर सोने की नक्काशी का काम हो रहा था।
मुगलकालीन ऐतिहासिक उपन्यास को पढ़ते समय , उस समय के घटनाक्रम से विचार जुड़ से गए।
बादशाह अकबर ने अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी से आगरा की थी ,तो शाहजादा खुर्रम ने आगरा से दिल्ली की तरफ का रुख किया।
जमुना के किनारे शाहजहाँनाबाद को बसाया।
आज भी पुरानी दिल्ली की तरफ का रुख करो तो वक़्त ! किताब के पन्नों के बीच में ठहरा हुआ लगता है।
उस समय के चांदनी चौक में दुनिया के हर कोने से लोग आते थे। जंजीबार ,सीरिया, इंग्लिस्तान ,तुर्किस्तान ,खुरासान ,काबुल ,चीन के लोग और वहां की चीजें दिखती थी। फलों में अनार , बेर ,तरबूज ,अंगूर से बाजार भरा पड़ा रहता था।
हाँथी और साँड़ों को सजा – धजा कर घूमते हुए बहुत सारे लोग दिख जाते थे। उत्सवनुमा माहौल बना रहता था। हवा में कस्तूरी ,जाफरान ,चन्दन और लोबान की महक और आकाश की ऊंचाइयों को छूती हुई रंगबिरंगी पतंगें।
साफ़ सफाई की समस्या ! पुरानी दिल्ली में तब भी दिखती थी ,आज भी दिखती है।
बरसात के मौसम में राजधानी में ,सबसे ज्यादा परेशानी होती थी पैदल चलने वालों को। आम खा – खाकर छिलके और गुठलियाँ ! बिना किसी तक़ल्लुफ़ के सड़क पर इधर -उधर फेंक देना आम था।
पाँव के नीचे छिलका या गुठली पड़ी तब तो ,देखते ही देखते राहगीर मुँह के बल जमीन पर गिर जाता।
अमीरों को तो पैदल चलना नहीं पड़ता वे घोड़े पर ,हाँथी पर या सुखडोले पर बैठे रहते। उन्हें क्या पता की आम के मौसम में ,लोगों को कितनी दिक्कत महसूस होती है।
खासतौर पर जो कहार सुखडोले का बांस अपने कंधे पर रख कर चलते ,उन्हें बहुत सँभाल – सँभाल कर पाँव रखना पड़ता। एक भी कहार
अगर आम की गुठलियों की कृपा से गिरा तो सभी गिर जायेंगे। न जाने क्यों शहर कोतवाल गुठली छिलके फेंकने वालों को पकड़ – पकड़ कर सजा नहीं देते।
क़िले के अंदर का मौका भी मामूली नहीं था ,बुरहानपुर से आम आया था।”