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पान और हुक्का दिल्ली की तहज़ीब का हिस्सा

by 2974shikhat August 16, 2020
by 2974shikhat August 16, 2020

शहर दिल्ली –

दिल्ली शहर की तो बात ही नही थमती और किताबें ! इस शहर के बारे मे अलग-अलग लेखकों के नज़रिए से बोलती हैं।

बुद्धिजीवियों के विचारों से इस शहर के बारे मे यह सार निकलता है कि, यहाँ कि तहजीब परिवर्तनशील समाज और शासकों के अनुरूप, समय समय पर बदलती रही । वर्तमान दिल्ली की अगर बात करो तो , यहाँ पर दो बातें मुख्य रूप से नज़र आती हैं। पहली वो दिल्ली जहाँ 300-400साल से शामिल तहजीब और पूर्वी संस्कृति की झलक है।दूसरी वो दिल्ली जो पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता के साथ दिखती है।

अकूत खजाना सभ्यता- संस्कृति और तहजीब का इस शहर ने छुपा रखा है।

आज बात करते हैं दिल्ली शहर के, पान और हुक्के के शौक की…

मुगलों के शासन काल की शुरुआत कहिये, या पुराने समय की दिल्ली कहिये…पान और हुक्के का चलन ज्यादा दिल्ली शहर में दिखने लगा…..राजधानी में चलन बढ़ने के कारण देश के तमाम हिस्सों को भी प्रभावित करने लगा…..

पान और हुक्का दिल्ली शहर की तहजीब का हिस्सा बन गये….

लंबे समय तक राजधानी होने के कारण इस शहर ने, अपना जिक्र विदेशियों के बीच में छेड़ कर रखा था….पान के रंग से न हमारी कविता,न शायरी दूर है,न ही हमारा संगीत….असलियत तो यह है कि पान ने साहित्य, सभ्यता, संस्कृति और जनजीवन को प्रभावित किया…

उस जमाने में दिल्ली में जो साफ सफाई बरती जाती थी….वह शायद लखनऊ को छोड़कर, हिंदूस्थान के किसी और शहर में नही बरती जाती थी….

पान दान उगलदान सब होने के बाद भी……

“बिजली का खंभा, सड़कें सब गुलनार”ये आज की हकीकत नही ,बड़ी पुरानी कहानी है…..

मुगलकाल में बड़ी बुर्जुग घर की महिलाएं समझाती थी कि, पान तो आजकल आदमियों से भी ज्यादा मिज़ाज दार हो गये हैं……इनकी देखभाल सलीके से होनी चाहिए, ज्यादा पानी मिला तो गल गए,कम मिला तो मर गये….

पानी न ज्यादा होना चाहिए न कम……

किसी ने पान के बारे में लिख दिया…..

“पान पुराना,घृत नया और कुलवंती नार

ये तीनों तब पाइये जब परसन होएं मुरार”

पान कहावतों, कहानियों,मुहावरों और पहेलियों का अदद हिस्सा बन चुका था….

किसी ने पहेली के माध्यम से ही सवाल पूछ लिया…

“देखो जादूगर का कमाल,डाले सब्ज निकले लाल”

Indian society and culture

Image Source : Google Free

पुराने जमाने में खासतौर पर राजपूतों में ,किसी काम को पूरा करने का संकल्प पान से किया जाता था…..युद्ध की स्थिति पैदा होने पर ,भरे दरबार में पान का बीड़ा रख दिया जाता था……जो शूरवीर उस युद्ध को जीतने का संकल्प करता,वह उस बीड़े को उठा लेता……वह सूरमा युद्ध में विजय पाता या अपनी जान दे देता…..

“किसी काम का बीड़ा उठाना”यह मुहावरा भी राजपूतों की इसी परंपरा से बना है…..कहने का अभिप्राय यह है कि पान ने, भाषा को सजाने में भी अपना योगदान दिया….

मुगल बादशाहों ने तो अपनी बेगमों और शहजादियों को, पानदान के खर्चे के लिए अलग जागीरें भी दी थीं……

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सुघड़पन की पहचान – पानदान

मुगल कालीन समय में लड़कियों का सुघड़पन ,उनके पानदान की सफाई से जांचा जाता था…..पान बहुत साफ होना चाहिए,एक एक पान का पत्ता अच्छी तरह से धोकर रखा जाता था….क्योंकि पान के पत्तों की नसों में छोटे छोटे कीड़े चिपके होते हैं …..धोने के बाद मोटे मोटे खद्दर के कपड़ों के टुकड़े में लपेटकर पान को रखा जाता था…..चूने और कत्थे की डिब्बियां भी साफ सुथरी और सलीके से ढंक कर रखी होती थी….पान दान बहुत कीमती और खूबसूरत बने होते थे…..

पान दान मंहगी धातुओं के अलावा, जूट और बांस के भी बने होते थे,और जालदार भी होते थे…

बात अगर दिल्ली के संदर्भ में हुक्के की करें तो, इसका रिवाज भी बहुत पुराना है…..

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मुगलों और राजपूतों के समय में, हुक्के का प्रचलन बढ़ता हुआ दिखता है । फिर बीड़ी का इस्तेमाल होने लगा, लेकिन ये ज्यादातर गरीब और देहातियों की पसंद बनी रही। दिल्ली में हुक्के का प्रचलन बहुत ज्यादा था । घरों में पानदान की तरह हुक्का रहता था । ज्यादातर घरों के बुजुर्ग हुक्का पिया करते थे ।

चिलम लड़कियों और औरतों से नही भरवायी जाती थी । इससे स्पष्ट होता है कि, शायद तंबाकू को अपने हाथों से छूना महिलाओं के लिए वर्जित रहा होगा,या शायद और कोई कारण रहा होगा ।

अंग्रेजों के समय में चुरुट और तरह तरह के सिगरेट आ गये ,लेकिन हुक्के की लोकप्रियता में फिर भी कोई कमी नही आयी । आज भी दिल्ली देहात में हुक्का पहले की तरह ही लोकप्रिय है । हुक्का सभी बिरादरी के लोग एक साथ बैठकर पीते थे ।

ऐसा माना जाता था कि, इससे अपनत्व की भावना बढ़ती है और बिरादरी भी मजबूत होती है।बिरादरी से “हुक्का पानी बंद होना”मुहावरा भी शायद उसी समय की स्थिति के अनुरूप बना होगा ।

हिंदी भाषा को समृद्ध करते हुए एक मुहावरा हुक्का भी दे गया । जिसका मतलब बिरादरी से किसी कारण से किसी व्यक्ति को अलग कर देना होता था । चिलम दिन में कई बार भरी जाती थी । चार वक्त तो हुक्के का प्रयोग निश्चित तौर पर हुआ करता था..

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किले में मर्दो और औरतों को हुक्के का बड़ा शौक था । खासतौर पर शहजादियां हुक्का बहुत पीतीं थी। नवाबों और अमीरों की बैठकों में शानदार बेशकीमती हुक्के रखे जाते थे । हुक्के दिल्ली में भी बनते थे, उसके बाद भी मुरादाबाद, दक्षिण और बंगाल के शहरों से भी मंगवाये जाते थे । हुक्का ताजा करने का मतलब पानी बदलना होता था ।

एक बात हुक्के के बारे में काबिले तारीफ है कि, तंबाकू का किसी न किसी माध्यम से सेवन करने वाली चीजों में से सिर्फ हुक्का ही ऐसा है ,जो बोलता है ।

गुड़गुड़ाहट के साथ तंबाकू के हानिकारक प्रभाव को, हर एक बार उपयोग करते समय बताता है ।

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ज्यादा उपयोग के बाद होने वाली शारीरिक व्याधियों के बारे में आगाह करता हुआ सा लगता है।

पान और हुक्के के साथ दिल्ली की तहजीब का यह हिस्सा, आज भी अपनी झलक दिल्ली शहर के कई कोनों में दिखाता है।

बदलता और दौड़ता भागता हुआ सा यह शहर ,एक बार फिर से अपने किसी दूसरे पक्ष के बारे में बोलने के लिए उत्सुक नज़र आता है ।

(यह ब्लॉग श्री महेश्वर दलाल की पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है से प्रेरित है”)

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