हमेशा से महानगरों के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाती हूं…..
तेजी से भागते हुए रास्ते, बहुमंजिली इमारतें,देर रात तक जागता हुआ शहर…..
दिमाग में हमेशा सवाल लाता है….. महानगरों की अपनी खुद की भी सभ्यता और संस्कृति होती है क्या?
आज के समय में महानगरों का मतलब सतही तौर पर ज्यादा धन कमाना, और भौतिक सुख सुविधाओं को ज्यादा से ज्यादा अर्जित करना होता है…..
यही आकर्षण लंबे समय से छोटे शहरों और कस्बों से भीड़ को महानगरों में खींच लाता है….
दिल्ली में कई सालों से रहते रहते इस शहर से लगाव सा तो हो गया है…
शायद यही लगाव इस शहर के बारे में गहराई से जानने की उत्सुकता को जगा देता है…..
इतिहास के पन्नों के अनुसार दिल्ली का इतिहास तीन हजार वर्षों से ज्यादा पुराना है…..
इतने लंबे समय में दिल्ली कई बार उजड़ी और कई बार बसी…..
दिल्ली में पृथ्वी राज चौहान की हार के बाद,1193से मुगल शासकों के पैर शताब्दियों तक जमे रहे , और शताब्दियों तक दिल्ली हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासकों की राजधानी रही….
दिल्ली की इस पराजय ने, हिंदुस्तान का इतिहास बदल दिया, और दिल्ली की सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन आया…..
मध्यकालीन हिंदू समाज में तमाम कुरीतियों के साथ सती प्रथा बहुत प्रचलित थी….
भारत में पहला जौहर भी दिल्ली ने ही पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद देखा था….
इस शहर की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि, उजड़ने के बाद यह बार बार बसी, और एक नये निखार और खूबसूरती के साथ आबाद हो गयी…..
अधिकतर इतिहास कारों का यह मानना है कि आज दिल्ली जहां स्थित है, वहां विभिन्न कालों में सात प्राचीन नगर आबाद हो चुके हैं….
इस बात पर भी बाद विवाद चलता रहता है, कोई सहमत होता है, तो कोई असहमत….
वर्तमान में केवल दो शहर हैं,और दोनों जिंदा हैं,एक शाहजहांनाबाद और दूसरा नयी दिल्ली….
इन दोनों शहरों में ऐतिहासिक इमारतें और उनके खंडहर मौजूद नज़र आते हैं…..
सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में जब शाहजहांनाबाद की नींव रखी गई तो दिल्ली की शानो-शौकत की धूम मच गयी…..
दिल्ली को “एशिया का रोम”, एशिया की राजधानी कहा जाने लगा…..
आज के संदर्भ में सोचो तो शाहजहांनाबाद में, सत्रहवीं सदी की सभ्यता और पूर्वी संस्कृति की झलक है तो, नयी दिल्ली में आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति चारों तरफ अपने पांव पसारते दिख जाती है…….
आजादी की पहली लड़ाई का ऐलान होने के बाद दिल्ली एक बार फिर से बर्बाद हो गयी…..
अंग्रेजों ने पूरी तल्लीनता के साथ दिल्ली को लूटा, और 1911में दिल्ली दरबार में यह फैसला सुनाया कि अब, दिल्ली को अंग्रेजी शासन की राजधानी बनाया जायेगा….
इस घोषणा के बाद अंग्रेजों ने पूरी तल्लीनता के साथ दिल्ली को सजाना संवारना शुरू कर दिया…..
अब इस शहर की बेमिसाल खूबसूरती और इसकी शानदार सभ्यता और संस्कृति के विदेशी भी प्रशंसक बन गये….
दिल्ली शहर की बात करो तो चांदनी चौक के बिना अधूरी लगती है…..
पुराने जमाने में चांदनी चौक के बीचों-बीच से नहर जाती थी,उस नहर के दोनों तरफ कुंजड़े,सब्जीवाले,फलवाले और भी दुनिया जहान की चीजें बेचने वाले बैठा करते थे….
इतनी भीड़ होती थी कि, धक्का मुक्की होना आम सी बात थी…
दुकानदार और फेरीवालों की आवाज का एक अलग ही लुफ्त आता था….
ऐसा लगता था कि किसी बाजार से न गुज़र रहे हैं बल्कि किसी शेरो शायरी वाली महफ़िल के संग हैं…
आज भी पुरानी दिल्ली में फेरी वाले तो तमाम दिखते हैं , लेकिन वो तुकबंदी वाली संगीत बिखेरने वाली आवाजें गुम हो गई….
वातावरण बदल गया ,न वो दिल है न मिज़ाज, न ही वो मस्त मौला अंदाज….
दिल्ली वालों के खेल कूद के शौक भी अलग-अलग थे…..
कसरत और कुश्ती का शौक दिल्ली वालों को हमेशा से रहा…..
सुबह पौ फटने से पहले, तारों की छांव में ही घरों की छतों पर चहल-पहल दिखती थी….
घरों की छतों पर दंड बैठक करते,कसरत और मुग्दरों की जोड़ी हिलाते लड़के पहले से ही दिल्ली की पहचान रहे हैं….
जिन घरों में लड़के घरों में कसरत नही करते थे,वो तड़के ही अखाड़ों की राह पकड़ लेते थे….
अखाड़ों में केवल दांव-पेंच ही नही सिखाये जाते थे, बल्कि चरित्र निर्माण और नैतिकता का पाठ सिखाने में अखाड़े अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे ….
गुरु या ख़लीफ़ा की बात अखाड़े के लड़कों के लिए पत्थर की लकीर होती थी…
तमाम लड़ाई झगडे गुरु या ख़लीफ़ा की बात से वही खत्म हो जाया करते थे…..
अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली की इस संस्कृति में बदलाव आना शुरू हो गया….
कथित धनाढ्य घरों के लड़कों को कम कपड़ों के साथ अखाड़ों में कुश्ती लड़ने और कसरत करने की जगह , अंग्रेजों के जैसे कपड़े पहनकर क्रिकेट ,हांकी, फुटबॉल खेलना भाने लगा…
धीरे-धीरे अखाड़ों की चमक दिल्ली में धूमिल होने लगी…..
आज भी दिल्ली में अखाड़ों की तादाद कयी सौ के करीब होगी….
यमुना जी का किनारा आज भी कयी अखाड़ों का केंद्र है….
लेकिन वो पुरानी वाली बात अब नही दिखती….
ऐसा माना जाता है कि मुगल काल में मनोरंजन के साधनों में लोगों को तैराकी बहुत पसंद थी…
शाहजहां बहादुर शाह जफर के शासन में, यमुना किनारे तैराकी प्रतियोगिता का आयोजन होता था…खासकर गर्मी के मौसम में यमुना किनारा गुलजार रहता था…
आधुनिक दिल्ली की नाइट लाइफ पब,बार और रेस्टोरेंट में दिखती है……
पहले भी दिल्ली की नाइट लाइफ यमुना नदी के किनारों पर दिखती थी……
पुरुषों के हाथों में लालटेन हुआ करती थी……
घूमने फिरने के इलाके फिरोजशाह कोटला,धौला कुआं, सफदरजंग का मकबरा और हुमायूं का मकबरा हुआ करता था…….
लेकिन महिलाओं का आधुनिक दिल्ली की तरह रात में निकलना नहीं होता था……
यमुना नदी तब जीवित सी दिखती थी,ठंडा पानी और रेतीला किनारा तरबूज और खरबूज के साथ दिखता था , यमुना के भीतर तब जीवन भी दिखता था……
वर्तमान की तुलना में सीमित साधनों के बीच में, तब भी दिल्ली वाले जिंदादिली के साथ रहते थे…
भारत के और हिस्सों की तुलना में मनोरंजन और शौक पर ज्यादा पैसा खर्च करते थे…..
आज की दिल्ली पर्यावरण से लेकर तहजीब, संस्कार, सभ्यता और संस्कृति के साथ एक बार फिर से बदलाव के मुहाने पर खड़ी नज़र आ रही है…..
(सभी चित्र इन्टरनेट से)