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कहानी ज्ञानी अष्टावक्र की (भाग – २)

by 2974shikhat November 22, 2021
by 2974shikhat November 22, 2021

माँ के द्वारा पिता के गायब होने का रहस्य पता चलते ही ,बालक अष्टावक्र और श्वेतकेतु राजा जनक के दरबार में पहुंचने के लिए निकल पड़े।

बालक समझकर दोनों को ,द्वारपाल ने द्वार पर ही रोक दिया ।
केवल वृद्ध और विद्वान ब्राह्मणों के अंदर प्रवेश की बात पता चलते ही ,अष्टावक्र और द्वारपाल का विवाद होने लगा।
अष्टावक्र के यह कहने पर की जो वेदों का ज्ञाता हो वही ब्राह्मणों में बड़ा है, मै इस सभा में बंदी से मिलना चाहता हूँ।
आज तुम हमे विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करते हुए भी देखोगे ,और बंदी को परास्त होते हुए भी देखोगे।

बालक की बातों से द्वारपाल भी प्रभावित हो गया ,और उन्हें राजा जनक के पास ले गया।
राजा जनक ने बंदी के प्रभाव और उसकी शक्ति की बात बताई ,तब भी अष्टावक्र अपनी बात पर अड़े रहे।

राजा जनक ने अष्टावक्र की विद्व्ता परखने के लिए कुछ सवाल पूछा

सोने के समय कौन आँख नही मूँदता ?
जन्म लेने के बाद किसमे गति नही होती ?
ह्रदय किसमे नही है ?
अपने वेग से कौन आगे बढ़ता है ?

अष्टावक्र ने जवाब देते हुए कहा


मछली सोते समय आँख नही मूंदती ,अंडा उत्पन्न होने की चेष्टा नही करता ,पत्थर में ह्रदय नही है,नदी अपने वेग से आगे बढ़ती है।
उत्तर सुनकर राजाजनक हाथ जोड़कर खड़े हो गये,और कहने लगे मै आपको मनुष्य नही समझता। आपको मै मंडप का द्वार सौंपता हूँ ,और यही वह बंदी है।

बंदी की तरफ घूमते हुए अष्टावक्र ने कहा , तुमने हारनेवालों को जल में डुबोने का नियम बना कर रखा है ,लेकिन मेरे सामने तुम बोल नही सकोगे। अब तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और मै तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ।
शास्त्रार्थ बहुत लम्बा चला और अंत में बंदी ! आधा श्लोक ही कहकर चुप हो गया ,जिसे अष्टावक्र ने पूरा किया। सभा में उपस्थित विद्वानों की प्रसन्नता का अंत न रहा।

अष्टावक्र ने कहा राजन ! इस बंदी ने शास्त्रार्थ में हारे हुए विद्वानों के साथ जैसा व्यहवार किया है ,वही इसके साथ भी होना चाहिए। इसकी भी वही गति होनी चाहिए। बंदी ने कहा महाराज ! मै जलाधीश वरुण का पुत्र हूँ। मेरे यहाँ भी आपकी ही तरह बारह वर्षों में पूरा होने वाला यज्ञ हो रहा है। उसी के लिए मैंने जल में डुबोने के बहाने विद्वान ब्राह्मणों को वरुण लोक में भेज दिया है। वे सभी अभी लौट आएंगे।

जनक अष्टावक्र की बात से सहमत नजर आये ,और उन्होंने बंदी को भी वही दंड देने की व्यवस्था की बात कही।
बंदी ने कहा – राजन ! वरुण का पुत्र होने के कारण मुझे डूबने से कोई भय नही,अष्टावक्र भी बहुत दिनों से डूबे हुए अपने पिता के अभी दर्शन करेंगे।

सभा में इसप्रकार की अभी बात हो ही रही थी तभी समुद्र में डुबोये हुए सभी ब्राह्मण वरुण देव से सम्मानित होकर, जल से बाहर आ कर राजा जनक की सभा में आ गये। सभी विद्वानों के बीच में कहोड ऋषि ने कहा ,मनुष्य ऐसे ही कामों के लिए संतान की कामना करता है। जिस काम को मै न कर सका उस काम को मेरे पुत्र ने पूरा कर दिया।

राजा की सभा से निकलकर वो आश्रम की तरफ चल पड़े। वहां पहुंचकर कहोड ने समंगा नदी में अष्टावक्र को स्नान करने के लिए कहा। नदी से बाहर निकलते ही उनका वक्री शरीर स्वस्थ और सामान्य हो गया। ऋषि कहोड ने गर्व के साथ स्नेह से अपने पुत्र की तरफ देखा और आश्रम की तरफ बढ़ चले अपनी पत्नी और गुरु को आश्चर्यचकित करने के लिए।

(यह कथा गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित महाभारत से पढ़ने के बाद लिखी गयी है।
चित्र का रेखांकन प्रेरणा के बाद स्वतः किया गया है। )

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