
किताबें पढ़ना और किताबी ज्ञान को वास्तविकता के धरातल पर उतारना, उतना आसान नहीं होता जितना , किताबें पढ़ने के बाद कल्पना लोक की सैर पर जाना होता है।
सामान्य तौर पर मानव स्वभाव होता है, वो जो पढ़ता है वह उसे कल्पना लोक की सैर पर ले जाता है। कल्पनाओं के संसार का कोई ओर छोर नही होता।
लेखक इस कल्पना के संसार में अपना , महत्वपूर्ण योगदान देता है। कविता , कहानी या उपन्यास रचता रहता है। किसी किताब का आकर्षक सा कवर, उस किताब के प्रति उत्सुकता जगा देता है। किताब का कवर उस किताब से परिचय कराता है।
एक बार वर्ल्ड बुक फेयर में किशोरों और युवाओं के समूह को, हिंदी किताबों के स्टॉल की तरफ बढ़ते देख , हमारे कदम कुछ पल के लिए ठिठक गए।
महानगरों में बच्चों का किताबों के प्रति रुझान देखना अच्छा लगता है ,लेकिन हिंदी बुक स्टॉल की तरफ बढ़ते उनके क़दमों ने ज़रा सा आश्चर्य में डाल दिया। क्योंकि समाज में चारो तरफ, अंग्रेजी भाषा को श्रेष्ठ समझने की भेड़चाल से हर कोई वाकिफ़ रहता है।
उन युवाओं की खोज , मुंशी प्रेमचंद्र जी की किताबों के पास जाकर खत्म हुई।
लेकिन किताबों के कवर का आकर्षक न दिखना, बातचीत का एक अहम् हिस्सा था। मुंशी प्रेमचंद्र जी जैसे महान लेखक, जो अपनी कहानियों को इस प्रकार रचते थे की ,वास्तविकता के धरातल को छूती हुई सी कहानी महसूस होती थी।
सोचने लगी मै अगर मुंशी जी आज होते तो शायद ! पब्लिशर को , कवर डिज़ाइन करने वाले लोगों से , ज़रा आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने की बात करते कि न करते ?
रंगों के तालमेल में सतरंगी रंगों का चयन करते कि न करते ?
“पूस की रात” का पात्र ठंड में ठिठुरता हुआ , मुंशी प्रेमचंद्र जी के विचारों कि श्रृंखला को कैसे प्रभावित करता ?
निःसंदेह आज का समय , आकर्षक तरीके से सजाये हुए कवर वाली किताबों का है, जो मनोविज्ञान को बेहतर तरीके से समझ कर छपवाई जाती हैं।
