देर रात तक जागने वाले महानगरों में रहते हुए कभी-कभी गांव भी याद आते हैं।
मिट्टी के चूल्हों पर पके हुए मीठे से स्वाद की याद दिला जाते हैं। कुछ साल पहले शहर में पल रहे छोटे-छोटे बच्चों को , उपलों पर पके हुए खाने को देखकर नाक भों सिकोड़ते देखा।
ईधन के रूप में उपयोग में आने वाले उपले हो ,अरहर की फसल का रहठा हो या कोयला,लकड़ी के बुरादा के चूल्हों में पके हुए खाने के स्वाद को माइक्रोवेव युग में ,जरा धुंधला सा महसूस किया है।
अब तो शहरों से जुड़े हुए गांव का स्वरूप भी पहले की तुलना में बदल चुका है। मिट्टी के चूल्हों पर पकने वाले खाने ने फाइव स्टार होटलों की तरफ पलायन कर लिया है। ऑर्गेनिक दालेंऔर सब्जियां चाहिए तब पॉकेट पर मार , तुलनात्मक रूप से ज़रा जोर की पड़ती है ।
सावन का महीना हो, खेतों की मेड़ों पर संभलते हुए चलना हो। धान की रोपाई के समय मधुर स्वर में गीत गाते हुए महिलाओं और पुरुषों की आवाज को सुनते हुए आगे बढ़ना हो।
गांव में हर मौसम की आहट जरा अलग सी। सावन में पेड़ों पर पड़े हुए झूले ,मेहँदी की झाड़ में से पत्तियों को तोड़ना, पीसना और लगाने का क्रम जरा सा लम्बा लेकिन, त्वचा के लिए हानिदायक रसायनों से ज़रा सा दूर।
समय -समय पर पूजे जाने वाले पोखर ,कुआँ , तालाब,नदी पर्यावरण संतुलन के साथ ही ,सुख और समृद्धि के भी साथी होते हैं।
सीधे सपाट शब्दों में यदि कहें तो गांव , प्रकृति और परम्पराओं से सीधे जुड़े होते हैं। हमारी परम्पराएं हमे संस्कारों से भी जोड़ती हैं।
लोकगीतों और बोली से जुड़ते ही ,गांव के खाने का स्वाद और मिट्टी का चूल्हा जरूर याद आता है।