पौराणिक कहानी के अनुसार मेरू नाम का पर्वत इतना चमकीला था कि,उसकी चमकीली चोटियों की चमक के सामने, सूर्य की प्रभा भी फीकी पड़ जाती थी।
इस पर्वत की गगनचुम्बी चोटियाँ, अनेक प्रकार के रत्नों से सजी हुई थी। इन्हीं चोटियों मे से एक पर, देवता लोग इकट्ठे होकर,अमृत को पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। देवताओं मे नारायण और ब्रम्हा जी भी थे।
भगवान नारायण ने देवताओं से कहा!असुर और देवता मिलकर समुद्र मंथन करके अमृत को प्राप्त करेंगे। देवताओं ने भगवान नारायण की सलाह पर ,मंदराचल पर्वत को समुद्र मंथन के लिए उपयोग मे लाने के लिए, उखाड़ने की पूरी ताकत से कोशिश की लेकिन, उखाड़ नही पाये। एक बार फिर से ब्रम्हा जी और नारायण की शरण मे जाकर, मंदराचल पर्वत को उखाड़ने की सलाह माँगी।
तब ब्रम्हा जी और नारायण की सलाह के फलस्वरूप, शेषनाग की सहायता से मंदराचल पर्वत को उखाड़ पाये।जब मंदराचल पर्वत के साथ समुद्र के पास पहुंचे तो,समुद्र से उसको मथने की अनुमति मांगी।
समुद्र ने कहा !अगर मुझे मथने के बाद मिलने वाले अमृत मे मेरा भी हिस्सा होगा ,तभी मै मंदराचल पर्वत को घुमाये जाने से, जो कष्ट होगा उसको सहने के लिए तैयार हूं।
देवता और असुरों ने समुद्र की सलाह मानने के बाद,कच्छपराज से मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर ग्रहण कर के, आधार बनने की बात कही।
जिसे कच्छपराज ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
देवराज इंद्र! यंत्र के द्वारा मन्दराचल पर्वत को घुमाने लगे। इसप्रकार देवता और असुरों ने ,वासुकी नाग को डोरी और मंदराचल पर्वत को मथानी बनाकर समुद्र मंथन प्रारंभ कर दिया। वासुकी नाग के मुंह की तरफ असुर, और पूंछ की तरफ देवता लगे थे।
नाग के मुख से धुएँ और अग्निज्वाला के साथ, सांस निकलने लगी। यह सांस थोड़ी देर मे मेघ बन जाती और, थकेमादे देवताओं के ऊपर जल बरसाने लगती। पर्वत के शिखर से ,पुष्पों की वर्षा होने लगी।गंभीर और भयंकर ध्वनि होने लगी।
पहाड़ के वृक्षों के आपस मे रगड़ खाने के कारण ,भयंकर आग लग गई । भगवान इंद्र ने, मेघों को बरसाकर अग्नि को शांत किया। सभी देवता और असुर! नारायण को छोड़कर बुरी तरह थक चुके थे,लेकिन अमृत नही निकला।
भगवान विष्णु ने !समुद्र मंथन मे लगे सभी देवताओं और असुरों को ,बल प्रदान किया और कहा,आप सभी मंदराचल पर्वत को तीव्रता से घुमाये और समुद्र को विचलित कर दें।
समुद्र के विचलित होते ही सबसे पहले, श्वेत वर्ण का चंद्रमा प्रकट हुआ, चंद्रमा के बाद भगवती लक्ष्मी और सुरा निकली,उच्चै:श्रवा घोड़ा, कौस्तुभमणि,कल्पवृक्ष, कामधेनु भी निकले।
इसके बाद धन्वन्तरि देव प्रकट हुए, उनके हाथ मे अमृत से भरा कलश था। दानवों के दल मे शोर मच गया,यह मेरा है …यह मेरा है…इसके बाद चार दांतों वाला ऐरावत हाथी निकला ,जिसे इंद्र ने ले लिया। तभी समुद्र से कालकूट विष निकला ,जिसके प्रभाव से लोगों की चेतना जाने लगी।
तब ब्रम्हा जी की प्रार्थना से भोले भंडारी भगवान शिव ने उसे, अपने कंठ मे धारण किया और नीलकंठ कहलाये।
अमृत और लक्ष्मी के लिए, दानवों मे बैर विरोध और फूट पड़ गई ।तब भगवान विष्णु अपनी माया से मोहिनी रूप धारण करके, दानवों के हाथ से अमृत कलश ले लिया। देवताओं ने अमृत पी लिया।
दानव उस समय भगवान विष्णु के मोहिनी रूप पर लट्टू हो रहे थे । उसी समय राहू दानव भी, देवताओं का रूप धारण करके अमृत पीने लगा।अभी अमृत उसके कंठ तक ही पहुंचा था कि ,सूर्य और चंद्रमा ने उसका भेद बतला दिया। भगवान विष्णु ने तुरंत ही अपने चक्र से, राहू का सिर काट डाला।
ऐसी मान्यता है कि तभी से राहू के साथ, चंद्रमा और सूर्य का वैमनस्य स्थायी हो गया। विष्णु भगवान ने देवताओं को अमृत पिलाने के बाद ,अपना मोहिनी रूप त्याग दिया।
देवता और असुरों के बीच छिड़े संग्राम मे, विष्णु भगवान के दो रूप नर और नारायण युद्ध भूमि मे दिखाई पड़े। सुर्दशन चक्र के भय से असुर पृथ्वी और समुद्र मे छिप गये।आखिरकार देवताओं की जीत हुई । मंदराचल पर्वत को सम्मानपूर्वक उनके स्थान पर पहुंचा दिया गया।
“कथा महाभारत मे दिये हुए तथ्यों पर आधारित”