निकल पड़े हम भी ‘कौतूहलवश’
शहर को देखने के लिए ।
रास्तों के साथ ही,शहर को समझने और बूझने के लिए ।
वास्तव मे कुछ लिखने के लिये
‘विषयवस्तु’ की तलाश थी ।
मन मे विषय के, मिलने की आस थी ।
आदत के मुताबिक, कुछ लिखने का इरादा था ।
कागज को रंगने का,किया खुद से ही वादा था ।
अचानक से विचार सा ‘कौंध’ गया ।
ये शहर ही,खुद को विषय बनाने की बात
हौले से बोल गया ।
ज़रा सा बदला बदला सा, शहर दिख रहा था
कहीं ‘मुखर’ तो कहीं ‘मूक’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं खुद मे ही ‘उलझा’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं ‘स्तब्ध’ तो कहीं ‘विचारशील’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं मुखौटों के पीछे से,’झाँकता’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं मुखौटे ‘उतरते’ दिख रहे थे ।
कहीं ‘नये अंदाज के साथ’ चढ़ते हुए
मुखौटे दिख रहे थे ।
कहीं ज़रा सा ‘गर्त मे डूबा’ सा
शहर दिख रहा था ।
कहीं घरों के साथ-साथ
‘मन की साफ सफाई ‘मे भी व्यस्त सा
शहर दिख रहा था ।
शायद इसीलिए कहीं ‘खुद के भीतर झाँकता’
तो कहीं ‘खुद को ढाँकता’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं धीमे से फुसफुसाता सा
शहर दिख रहा था ।
कहीं ‘बातों से बातें’ निकल रहीं थी ।
कहीं ‘बातों मे ही उलझता’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं ‘झूठ मे डूबा’ सा शहर दिख रहा था ।
कहीं ‘सच को खोजता’ सा शहर दिख रहा था
दरवाजों की साँसों से गर्त !कभी भीतर
कभी बाहर हो रही थी ।
तो कहीं वातावरण मे, फैली हुई गर्त ही
‘मुँह को ढाँकने पर’ मजबूर कर रही थी ।
कहीं मंद हवा के साथ चलता – फिरता
कहीं मंद हवा के साथ ही दौड़ता -भागता
सा शहर दिख रहा था ।
कहीं ‘आशाओं के झूलों मे झूलता’ सा
शहर दिख रहा था ।
बात शहर की करो तो
ज्यादातर उम्मीद,आशा, इच्छा, विश्वास,हौसले
के साथ शहर दिख रहा था ।
बस चला जा रहा था,बढ़ा जा रहा था ।
यह शहर भी ‘कौतूहल’ को बढ़ा रहा था ।