कुछ लिखने का इरादा था….
समाज की आवाज को, पढ़ने के लिये थम गयी….
समाचार पत्रों की तरफ नज़र फिर गयी….
हर जगह,आवाज ही आवाज महसूस हो रही थी…
समाचार पत्र हो, या रेडियो,या हो
दृश्य माध्यम के रूप मे टेलीविजन…..
जुबाँ का हर जगह इस्तेमाल
भरपूर होता है…..
ये जुबाँ भी हर जगह
अपनी आतुरता दिखाती है….
कहीं कहीं ही शांत होकर
आराम तलबी के अंदाज मे नज़र आती है….
बात हमारी मानो या न मानो….
जुबां होती है…..
पहले दर्जे की लड़ाकू….
पहले दर्जे की चटोरी…..
बात बात पर फिसलती…..
बात बात पर राज उगलती……
उगलने के बाद मे संभलती…..
सामान्यतौर पर चाटुकारिता को पहचानती…..
हाजिर जवाबी को भी मानती…..
सीधी सादी बात पर अकड़ती…..
समाज मे यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ दिखती झगड़ती…..
तमाम तरह के चोंचले….
जुबाँ के माध्यम से ही चले…
जुबाँ होती है जुझारू…..
रणभूमि मे तो उतारो…..
क्या कतरनी जैसी चलती है…..
सामने वाले के शब्दों को
मैदान मे उतरने से पहले ही कतरती है……
इसका तो बस एक ही फलसफा….
अपना दिल और दिमाग फूल सा हल्का…
दूसरे के दिलोदिमाग पर मनो कचड़ा…..
जुबाँ की अपनी ही चाल है…..
सामान्यतौर पर जुबाँ के कारण ही
अधिकांशत: समाज का यह हाल है…..
किसी का चेहरा इसी के कारण खिला…..
किसी का चेहरा इसी के कारण बुझा…..
कोई विस्मय के साथ खड़ा…
किसी ने जुबाँ को बहला फुसला लिया…..
अपना सच्चा दोस्त बना लिया….
किसी ने जुबाँ के द्वारा ही, अपना दायरा बढ़ा लिया…..
किसी ने इसी के कारण खुद को, निश्चित दायरे मे समेट लिया….
बड़े बड़े काम कर जाती…..
कहीं अराजकता फैलाती…..
तो कहीं शांति की बात कह जाती….
जब आती स्वाद की बारी…
चटोरेपन की बेकरारी…..
इसी ने ली शरीर और स्वास्थ को
बिगाड़ने व सुधारने की जिम्मेदारी……
जुबाँ और दिमाग का जब तक
नकारात्मक या सकारात्मक मेल है…..
समाज का बनना और बिगड़ना….
सच मानो तो…..
काफी हद तक….
जुबाँ का ही खेल है…..
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बिल्कुल सहमत हूं , आपकी बात से।