मानो या न मानो…..
लेकिन बात ये “सवा सोलह आने सही जानो”……
बेफिक्री सुबह की, दिन सकारात्मक
बना देती है…..
वहीं सुबह की भागादौड़ी और आपाधापी…..
जाने कितनी उलझनो को सामने ला देती है……
दिन की शुरुआत, सुकून और शांति के साथ……
आज की सबसे बड़ी जरूरत बन चुकी है……
घरों के दायरे से बाहर निकलकर……
काम करते हुए समाज को ये बात
ज़रा सी फिजूल की लगती है……
बात एक बार फिर से आकर
वक्त पर ठहरती है…….
जीवन की आपाधापी, वक्त के कारण ही तो
भागादौड़ी का दम भरती है……
भागते हुए रास्ते,भागती हुयी गाड़ियाँ……
जुबान पर कड़वे शब्द, तो कहीं फिसलती हुयी गालियां…….
कपड़े सलवट विहीन, लेकिन माथे पर सलवटें……
समय से पहले ही व्यक्ति को, उम्रदराज़ दिखा देती हैं……
शारीरिक रूप से न सही तो
इंसान को मानसिक रूप से थका देती है……
पता ही नही चलता इंसान को, कब उसकी सकारात्मकता
को धीरे से नकारात्मकता चुरा लेती है……
पढी थी कहीं चंद पंक्ति….
“ये बेफिक्र सी सुबह, और गुनगुनाहट शामों की
जिंदगी खूबसूरत है,अगर आदत हो मुस्कुराने की”
जीवन के सफर मे सच नज़र आती है….
ये रास्तों की भीड़, चिलचिलाती हुई धूप
और गाड़ियों का शोर, थम नही सकता…..
इंसान जीवन के सफर मे इन बातों से
अलग-थलग रह भी नही सकता……
लेकिन खुद को सकारात्मक और शांत रखने का
छोटा सा प्रयास तो कर सकता है……
खुद का ही सच्चा दोस्त तो बन सकता है……
अपशब्द निकालने से पहले,जुबान पर शब्दों को
थाम तो सकता है……
चिंताओं के बारे मे चिंता करने से
चिंताओं का सैलाब सा आता नज़र आता है……
व्यक्ति बस उसी मे, डूबता और उतराता है…..
चेहरे की मुस्कुराहट, और ज़रा सी बेफिक्री
सुकून लाती है……
व्यक्ति के जीवन की सुबह बेफिक्र सी……
और शाम गुनगुनाती हुयी सी नज़र आती है……