20 July,2017
निकली थी पहाड़ों पर घूमने
विचारों के सहारे ही।
चढ़ती जा रही थी “पगडंडियों “पर
“कच्चे रास्तों” पर।
“दुर्गम “रास्तों को भी “सुगम” समझ कर
आगे बढ़ना सीख लिया था।
फिसलन का भी “अंदेशा” था।
दिमाग ने बड़े प्यार से दिया
यह “संदेशा”था।
पहाड़ों की मिट्टी बड़ी अजीब सी होती है।
ज़रा सी “भुरभुरी” ज़रा सी पकड़ की
“कमजोर”होती है।
आसपास की चट्टानों को फिर भी
सँभाले हुई होती है।
रखना होता है उनपर पैर ज़रा सा सँभल सँभल कर।
चलना होता है हमेशा उनसे बचकर।
पहाड़ों पर उपस्थित “वनस्पतियाँ” भी अजीब होती हैं।
कहीं छोटी छोटी “झाड़ियाँ” तो कहीं पर
कटीले कीकर और बबूल के साथ भी होती हैं।
देखा अचानक से पानी का “सैलाब” चला आ रहा था।
नीचे गिरते हुए “जल प्रपात” बना रहा था।
चल रही थी मंद मंद हवा भी
जो दिमाग मे विचारों को सुझा रही थी।
अचानक से दिमाग मे सवाल “कुलबुलाया”।
इतनी ऊँचाई पर ये जानवर कैसे पहुंचे ?
जरूरी नही होते क्या इनके लिए भी जूते ?
खाने की तलाश ही तो है जो इन्हें यहाँ तक ले कर आती है।
अब ये मत सोच लेना की इंसानों की तरह इन्हें भी
“तफरीह” भाती है ।
पहाड़ों पर चढ़ने का “फितूर” सा छाया था।
ऊपर पहुंचने के बाद ही “सुकून” आया था।
नही हो रहा था कहीं से थकान का “आभास” भी।
मन को हो रहा था सफलता को छूने का “एहसास” अभी।
पहाड़ों पर बैठने मे मजा आ रहा था।
ऊपर से नीचे देखने पर खुद की मेहनत पर
ज़रा सा संदेह भी होता जा रहा था।
तभी हुआ अचानक से बड़ी जोर से शोर।
बादलों मे हुआ था परस्पर विरोध।
आकाश को देखा काले बादल भी आ गये थे।
तड़कती भड़कती बिजली को भी आकाश मे सजा रहे थे।
अचानक से हुआ तीव्र गर्मी का “एहसास”
आँखें खुली तब पता चला सपने मे पहाड़ों की
सैर हो रही थी।
दिमाग पड़ गया सोच मे
खुली आँखों से देखा गया “सपना”
आँखें बंद होने पर “चलचित्र” सा चलता जाता है।
आँखों को खोलकर “कर्म” करने पर हमेशा “विवश” कर जाता है।
सपने भी बड़े “अजीब” होते हैं।
हमेशा प्रकृति के झूले मे झुलाते हैं।
आँखें खुलने पर जीवन की मुश्किलों से
आमना सामना करवाते हैं I
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Nice title of the poetry.
Thanks😊