काशी धाम -अब्दुल रहीम ख़ान ख़ाना और संत कवि तुलसीदास
काशी के गंगा घाट पर व्यापारियों की नाव तो रूकती ही थी ,इसके अलावा प्रवासी पक्षियों का दल भी आकर तैरने लगा था। गन्ने के साथ -साथ चूना ,लकड़ी ,नील आदि का व्यापार भी जलमार्ग से होता था।
गोपाल मंदिर ,संकट मोचन में जो वृद्ध महिलाएं और पुरुष आकर बैठते हैं , वो इन प्रवासी चिड़ियों को देखकर मौसम का अनुमान लगाते हुए कहने लगे “इस बार जाड़ा ज्यादा पड़ेगा। “
उसी समूह में से एक बुजुर्ग बोले ” इस बार का जाड़ा अगर काट सका तो मेरे सौ साल पूरे हो जायेंगे “
लगभग -लगभग डाटते हुए सामने बैठा दूसरा बुजुर्ग बोला -“तुम्हारी झूठ बोलने की आदत बुढ़ापे में भी नही गयी। बीस साल पहले ही सौ साल पूरे कर चुके हो। अब और जीकर क्या करोगे ? देखने को कुछ बाकी है क्या ?”
उन्हीं लोगों के बगल में रुई का कंबादार पहने एक और बूढा व्यक्ति बैठा था। इस समय उसकी दाढ़ी धूल से सनी हुई थी ,ऐसा लग रहा था लम्बी यात्रा करके आया हो। ऊपर आसमान की तरफ देखने लगा ,उसे भी आसमान में पक्षी उड़ते हुए दिख रहे थे। चारों तरफ देखते हुए उठ खड़ा हुआ, और सारी काशी का चक्कर काटते हुए शाम को तुलसीघाट पर जाकर बैठ गया।
घाट पर आज का दिन महत्वपूर्ण था। बहुत दिनों के बाद आज तुलसीदास जी खुद आरती कर रहे थे।
आजकल आरती करते नही हैं ,क्योंकि हाथ ज्यादा ही काँपने लगा है। उनका हमेशा का साथी या सेवक जो भी कहिये ,उनके पास ही खड़ा था। आरती के अंत में प्रसाद के रूप में तिल और खाजा दिया गया है।
प्रसाद पाने वालों की संख्या बहुत अधिक थी। जिसमे गंगा के मल्लाह ,गृहस्थ जन ,लाचार और असहाय लोग थे।
इनलोगों के चले जाने के बाद बेनीमाधव ,आरती का सामान और भोग में चढ़ाई मिठाई वगैरह उठा कर रखने लगे। संत कवि अकेले-अकेले ही सीढ़ियाँ उतरने लगे। उतरते समय उनके बांये पैर की खड़ाऊं मुड़ गयी। मंदिर के अंदर दिये की रौशनी हवा लगने के कारण ऐसी हिल रही थी जैसे सावन में पेड़ पर डाला हुआ झूला हिलता हो।
बेनीमाधव घबराया सा दौड़ता ,भागता हुआ सा संत कवि के पास आया। इसी घबड़ाहट में उसके हाथ से प्रसाद की थाली छूटकर नीचे गिर गयी और वहीं जमीन पर गोल – गोल नाचने लगी।
उसी समय धूल से सनी दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने दौड़कर , संत कवि को ठीक वक़्त पर पकड़ लिया।
सँभलकर तुलसीदास जी खड़े हो गये। गुफा के द्वार तक उस व्यक्ति को आया देखकर, तुलसीदास जी आश्चर्य में पड़ गये।
सामान्यतौर पर भक्तगण मंदिर की सीढ़ियों तक ही आते हैं ,गुफा के द्वार तक नही। तुलसीदास ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा – आज अगर आप न होते तो —-
गंभीर आँखों वाला वह व्यक्ति तुलसीदास जी के साथ गुफा में जाने लगा ,बेनीमाधव ने कहा , “आप कहाँ जा रहे हैं ?
वह बूढा व्यक्ति बोला , क्यों ? कवि के साथ जा रहा था।
बेनीमाधव ने रुखाई से कहा , संतजी अब आराम करेंगे किसी से बात नही करेंगे।
वह बोला न करें। मै ही कवि से बात कर लूँगा।
ऐसा जिद्दीअतिथि तो कभी नही देखा बेनीमाधव ने।
कवि भी कुछ नही कह पा रहे थे ,उनकी शराफत आड़े हाथ आ रही थी।
मंदिर की सीढ़ियों पर गिरने से बचाया था संत कवि को इस व्यक्ति ने !
अंतिम हथियार छोड़ते हुए बेनीमाधव ने कहा।
आप ,अभी नहीं – “कल सुबह आइयेगा “
संत जी शर्मिंदा हुए। रुककर बोले – ‘ओहो बेनीमाधव — ‘
बूढ़े ने सेवक की तरफ देखकर कहा ,बहुत साल हो गये मै आया नही, खैर – तो क्या मै चला जाऊँ ?
रुककर तुलसीदास जी ने कहा – आ -प ?
ठहरिये ,मुझे सारी बातें याद नही रहती हैं अब , मेरी उम्र हो रही है।
मेरी भी उम्र हो रही है कविवर —- बुजुर्ग ने कहा।
आइये बैठिये —
बैठने के लिए दरी कम्बल संत कवि के सामने बिछा कर ,बेनीमाधव भी एक तरफ बैठकर उत्सुकता के साथ, बातों को सुनने के लिए बैठ गये।
मै स्मृति के हाथों परास्त हो चूका हूँ , क्या आप अपना परिचय देंगे।