दो संत कवियों का वार्तालाप
हाँ ,काशी में ही सारी जिंदगी बीती ,’तुलसीदास बोले’ –
यहीं रहते हुए तो किष्किंधाकांड लिखा है। आखिरी बार सारी काशी का चक्कर काटा और अब अस्सीघाट पर अपना ठिकाना है। थोड़ीदेर तक दोनों संत चुपचाप रहे ,उसके बाद बेनीमाधव ने गंगा की बलुई मिट्टी में पैदा हुए तरबूज को आधा काटकर रहीमदास जी के पास रखा।
रहीम ने छुआ तक नहीं -बोले भूख नहीं है। बहुत दिनों से भूख नहीं लगती इसलिए मै कुछ खाता नहीं।
बेनीमाधव ने पूछा , कितने दिन से नहीं खा रहे हैं ?
याद नहीं , शायद छह महीने तो हो गए होंगे।
मन में शांति नहीं है बेनीमाधव ,इसलिए भूख नही है।
रहीम की बात सुनकर तुलसीदास मन ही मन हँसे, कुछ बोले नही।
रहीम कहते रहे दिन तो हरि का नाम लेते हुए कट जाता है,लेकिन रात को नींद नही आती।
साधुओं की गुफ़ाओं का चक्कर काटता हूँ। जी करता है चल के चीन के ज्ञानियों के पास जाऊँ,कभी मन करता है खुरासान के सन्यासियों के पास चला जाऊँ ,कभी तिब्बत के लामाओं के पास जाकर दोस्ती करने का मन करता है।
कभी पुर्तगाली साधुओं की विचारधारा मन को भाती है। ईरान की अग्निपूजा का रहस्य जानने का भी मन करता है।
तुलसीदास जी ने नजरें उठायीं ,कम्बल शरीर पर से हट गया था। निष्प्राण हुआ हाथ बाँयी जाँघ पर, सूखी लकड़ी के समान पड़ा था।
दाहिने हाथ को उठाकर कवि बोले ” तुम तो एक हो रहीम मै तुम्हें एक दूसरे रहीम के बारे में बताता हूँ ,सुनो। “
अब्दुल रहीम खानखाना ,अकबर बादशाह के मंत्री।
रहीम बोल उठे “तुलसी ,तुम आज भी अकबर बादशाह के ज़माने की बातें करते हो उनका तो न जाने कितने साल पहले इंतकाल हो चुका।
आश्चर्य के साथ कवि बोले ,अच्छा ?
यह बात तो किसी ने बताई ही नहीं।
अब तो बादशाह हैं जहाँगीर।
अब कोई भी बादशाह हो तुम -तुम अब्दुल रहीम खानखाना की बात सुनो।
जब मै प्रह्लाद घाट पर रहता था तब कई बार आये थे। रामचरितमानस पढ़ा जा रहा है, यह सुनते ही वहां पहुंच जाते और सुनने बैठ जाते।
उम्र में मुझसे छोटे ही थे ,इधर कई दिनों से उनसे मुलाकात नही हुई।
मन की भूख मिटने के लिए कहाँ -कहाँ का चक्कर नही काट रहे थे। शांति मिल ही नही रही थी।
मैंने उनसे कहा जो सोचा करते हैं,वही लिख डालिये।
अरबी फ़ारसी और संस्कृत और हिंदी के प्रकाण्ड विद्वान थे “रहीम खानखाना”
खड़ी बोली में तब उन्होंने लिख डाला “रहीम सतसई “