सारे हिन्दोस्तान में एक साथ बहुत सारी घटनायें होती रहती हैं। है भी तो इतना बड़ा कि ,कई छोटे- छोटे देश इसके भीतर समा जायें।
किस्सा मुग़ल सल्तनत के समय का है –
“हिरात ,कंधार ,काबुल कि मंडियों में जिन दिनों गेंहूं बिकने के लिए आता है ,उन दिनों कन्नौज ,काशी और कामरूप के किसान आसमान के तरफ टुकुर -टुकुर देखते रहते हैं। जाने कब अच्छी बरसात होगी। जमीन फसल बोने लायक होगी।
उसी वक़्त काशी की सूरत कुछ और ही हो रही थी। एक सी तस्वीर पूरे हिंदुस्तान में देखने को नहीं मिलती जैसे इलाहबाद ,जौनपुर और चुनार एक सूबा है। उसी तरह काशी भी एक सूबा है।
बनारस को काशी कहकर पुकारा जाता है। अब काशी कहकर क्यों बुलाते है ,इसके लिए भी अनेक प्रचलित कथायें हैं।
संत कवि तुलसीदास और गंगा घाट
लेकिन इस वक़्त काशी को छोड़कर लोग भाग रहे हैं। कोई हाथी पर,कोई घोड़े पर ,कोई बैलगाड़ी पर। जमींदार हैं तो घोड़ागाड़ी पर
भाग रहा था। बड़े बड़े बज़रों में भरकर लोग जा रहे थे। किसी को दिशा का कोई ज्ञान और भान भी न था।
मणिकर्णिका घाट के पास कि गली में लोग मृत शरीर को लावारिस फेंककर जा रहे थे। घरों के दरवाजे खुले पड़े थे ,अंदर से कराहने कि आवाजें आ रहीं थी। मंडियाँ खाली पड़ी थीं ,कोई और दिन होता तो दशाश्वमेघ घाट पर गंगा स्नान करने वालों कि भीड़ जुटी होती।
लेकिन पहलवानों का दंड पेलना ,मालिश करवाना आज कहीं पर नहीं दिखाई पड़ रहा था।
यहाँ तक कि एक कबूतर भी घाट पर नहीं दिख रहा था।
ठीक तभी गंगा के किनारे घाट की सीढ़ियों पर, गंजे सिर वाले एक वृद्ध व्यग्र से खड़े हैं। उनके गंजे सिर के पीछे लम्बी शिखा नज़र आ रही थी।
आसमान की तरफ दोनों हाथ उठाकर आँसू भरी और रूंधी सी आवाज़ में कह रहे थे – काशी को बचा लो भगवान : –
इस देवी प्रकोप से रक्षा करो –
अगर काशी न रही तो हिन्दोस्तान भी न बच सकेगा। अगर कोई और दिन होता तो इन वृद्ध सज्जन के आते ही लोग रास्ता छोड़ देते।
इतने लम्बे घाट पर अकेले खड़े थे। इस समय उनका सम्मान करने वाला कोई न था।
काशी नरेश उन्हें कवि कहते हैं। आम इंसान संत कहता है। और वही इंसान इस समय विलाप कर रहा था। रो रोकर कह रहा था –
हे सियाराम , एक दिन मेरी पत्नी ने तुम्हारी ओर मुझे धकेल दिया था। उस वक़्त मै युवा था।
गया था मै रत्नावली को देखने ,जब उसने धिक्कारते हुये कहा था –
लाज न आवे आपको ,दौड़े आये साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को ,कहा कहूँ मै नाथ।।
चूहा बीमारी के कारण काशी उजड़ती जा रही है। दरिया के उस पार से विदेशी नाविक अपने साथ यह रोग ले आये। आज लाशों को फूँकने के लिये आदमी नहीं हैं। कहते कहते वे वहीँ गंगा की सीढ़ियों पर निराशा के साथ बैठ गये।
“ये थे संत कवि तुलसीदास “
आज मृत्यु की कगार पर खड़े होकर बार-बार उन्हें अपनी पत्नी रत्नावली याद आ रही थी –
“अस्थि चर्ममय देह मम ,तामै ऐसी प्रीति
वैसी जो श्री राम में , होति न तब भवभीति।। “
हे ईश्वर ! मेरी तो तुम्हीं से प्रीत है और तुमने मेरी काशी का क्या हाल किया। कहते हुए तुलसीदास जी आगे बढ़े थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने देखा। काशी के रास्तों पर शाही सिपाही मुँह के बल गिरे पड़े हैं।
जगह -जगह तलवार , बरछा ,कटार ,कुल्हाड़ी आदि हथियार इधर -उधर पड़े हैं।
जैसे – जैसे तुलसीदास जी आगे बढ़ते गये ,वैसे – वैसे ही सिपाही मिलते गये। और ताज़्जुब की बात तो यह थी कि, मँहगी से मँहगी चीजें जेवर वगैरह जमीन पर धूल मिट्टी में सने हुए बिखरे पड़े थे।
तुलसीदास को याद आया, बहुत साल पहले हिन्दोस्तान के बादशाह अकबर थे। उसके बाद से तो एक युग बीत चुका है। इंसान तो आज मरणशील है। क्या आज भी वही बादशाह होंगे ?
ये सिपाही जरूर किसी जंग से लूट का माल लेकर लौट रहे होंगे ,तभी इनको ये चूहा बीमारी लगी होगी।