व्यापारी की यात्रा
सूरत के जिस बंदरगाह पर टेवरनियर अपने तीन जिराफ के साथ उतरे थे ,वह बंदरगाह काफी व्यस्त रहता है।
नावों का आना – जाना सामान का चढ़ना उतरना लगा ही रहता है। लहरों के साथ उड़ती हुई चिड़ियों का शोर भी, इनके साथ चलता रहता है। बंदरगाह में नियुक्त शाही कर्मचारी माल, नाप तौल रहे थे।
विदेशी लोगों को हुण्डी के बदले अशर्फी देने के लिए ,थोड़ी -थोड़ी दूर पर हिंदुस्तान के महाजन भी बैठते हैं।
उनके सामने कई मुल्कों से आये व्यापारी भीड़ लगाकर खड़े थे।
कुछ लोग अपनी हुंडियाँ तुड़वाकर नई हुण्डी बनवा रहे थे। क्योंकि रास्ते की मुसीबत से बचने के लिये लोग, नगद लेकर चलना नहीं चाहते हैं।
मुंशी के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर ऊँची आवाज में टेवरनियर बोले – फिर मुलाकात होगी। लौटते वक़्त इधर से ही जाऊँगा।
हाथ हिलाकर विदा लेते हुए टेवरनियर सराय की तलाश में आगे बढ़ लिये। उनके साथ उनके तीनों जिराफ भी थे।
टेवरनियर टूटी फूटी फारसी बोल लेते हैं। उनमे चालू भाषा उर्दू भी रहती है। ज्यादातर तो वह इशारे से ही काम चलाते हैं।
थोड़ा आगे बढ़े तो देखा उन्हें पीछे छोड़कर ,उनके तीनों जिराफ काफी आगे निकल गये हैं। अगर उनके चलने की यही रफ़्तार रही तो ये तीनों तो आगे निकल जायेंगे। और देखते ही देखते गायब हो जायेंगे ,सोचकर टेवरनियर आगे बढ़ने लगे।
अँधेरा गहराने लगा था उनके सामने दो रास्ते थे। और दोनों ही पेड़ों की छाया पड़ने के कारण साफ नजर नहीं आ रहे थे। मन ही मन टेवरनियर बोले – “एक सराय की जल्दी ही तलाश करनी पड़ेगी। “
दोनों रास्तों में से एक सूरत से अहमदाबाद होते हुए आगरा जाता है। जिसमे छियालिस दिन पैदल चलने में लगते हैं।
और दूसरा खण्डवा से ग्वालियर होते हुए आगरा जाता है। पैदल चलने वालों के लिये यह भी पचास दिन का रास्ता है।
टेवरनियर ने दौड़कर अपने जिराफों को पकड़ा। तीनों अपनी गर्दन लम्बी करके , कटीली झाड़ियों में से कोमल कोपल खा रहे थे।
सामने से गुजरता हुआ एक दृश्य टेवरनियर ,कौतूहल के साथ देखने लगे। सामने से हाथी ,घोड़ों और ऊंटों की लम्बी कतार जा रही थी। ऊंटों की पीठ पर छोटे आकार की तोपें बँधी हुई थी। इनके साथ मशाल हाथ में लिये हुये गोलंदाज। इसके बाद रसद से भरी हुई अनगिनत बैलगाड़ियाँ। उसके पीछे बोझा ढ़ोते हुए खच्चर। और सबसे पीछे सेनापति की सवारी।
टेवरनियर सावधान हो गये। ज्यादा पास चले गए तो उन्हें भी माल ढ़ोने में लगा दिया जायेगा।
रास्ते के किनारे खड़ा एक भिश्ती बोला – ” कंधार में युद्ध शुरू होने वाला है , उस लड़ाई के सिपहसालार हैं शाहज़ादा औरंगजेब। “
टेवरनियर समझ गये की युद्ध शुरू होने वाला है। गुजरात से यह सेना जा रही है , शाहज़ादे की सेना से जुड़ने के लिये।
मन ही मन वो जोड़ – घटाना करने लगे ” लड़ाई का मतलब मोहरों का खेल “
वे अपने साथ तीन जिराफ भी लाये हैं ‘दारा शिकोह ‘ को उपहार देने के लिये।
उनके पास नाशपाती के आकार के सात बड़े – बड़े मोती हैं ,उसके अलावा हीरे भी हैं।
उपहार देकर ही व्यापार के लिये लाया माल निकालने में आसानी होती है।
दूसरे दिन भोर होते ही टेवरनियर खण्डवा की तरफ जानेवाले रास्ते पर चल पड़े। थोड़ी दूर जाकर वह दूसरा रास्ता पकड़ेंगे।
सूरज जब सिर पर आया तब समझ में आया , टेवरनियर जिराफ समेत दक्षिण की तरफ जा रहे हैं। एलोरा की तरफ –
हीरे मोती के व्यापारी हैं – क्या करना है अच्छी तरह से जानते हैं। कुशाग्र बुद्धि वाले व्यापारी माने जाते हैं।
शायद ! व्यापार को बढ़ाने का उद्देश्य गोलकुण्डा की तरफ भी ले जाये —-
नोट –
“दिल्ली में रहते हुये ऐतिहासिक धरोहरों को देखने पर और ऐतिहासिक साहित्य पढ़ने पर , ऐसा लगता है घटनायें और व्यक्ति जीवित हैं।
और घटनाक्रम आँखों के सामने चल रहा हो। लेकिन समय का चक्र चलता रहता है , ये भी इतिहास की किताबें ही बताती हैं।
ऐतिहासिक उपन्यास बोलते हैं ,जो घटनायें घटित हो चुकी हैं वो परिवर्तनशील नहीं हैं। इतिहास तब तक मूक रहता है जब तक जिज्ञासा शांत रहती है। दारा – शिकोह अलौकिक सत्ता के विश्वासी थे ,लेकिन धर्मांध और सक्षम विरोधियों की कुटिल नीति और झूठे आरोप ने उन्हें मौत के मुँह में पहुँचा दिया।”