बच्चों के पालन – पोषण का हर घर का अंदाज जुदा सा।
कहीं व्यस्त जीवन शैली के बीच माँ -बाप और बच्चे का बेहतर समीकरण ,लेकिन व्यहवारिक ज्ञान ज़रा सा सिमटा सा। कहीं संयुक्त परिवार के बीच में पलता – बढ़ता बच्चा। तुलनात्मक रूप से व्यहवार में अंतर नज़र आ ही जाता है।
हर तरह की पारिवारिक व्यवस्था के कुछ फायदे तो कुछ नुकसान।
खाने -पीने के समय रोते चिल्लाते हुए बच्चों की बहुलता के बीच , हम भी ज़रा सा ठिठक से गये।
माँ और बच्चे की व्यस्तता तो सामने दिख रही थी , लेकिन पोपले मुंह और झुर्रियों वाले शरीर के साथ , मूलधन से ज्यादा ब्याज को दिया जाने वाला लाड़ और दुलार भी नज़र आ रहा था। ठिठकने पर मजबूर केवल बच्चे के रोने और चिल्लाने की आवाज ने ही नहीं किया था। बल्कि उन वृद्ध आँखों के बीच असीम प्यार और दुलार की भावनाओं ने भी, कुछ पल के लिए रुकने पर मजबूर किया।
सोचने लगे हम भी , जिंदगी की भागती हुई रफ़्तार के बीच में कितने अनमोल से होते हैं न बुजुर्गों के लिए ये पल।
लिखने का शौक होने के कारण उन पलों को अपने विचारों में समेट लिया ,सोचा कभी फुर्सत से बैठकर इन पलों को शब्दों के बीच में सजाऊंगी और सवारूँगी।
अगर चित्रकार होती या फोटोग्राफर होती तो इन अनमोल पलों को ,अपनी पेंसिल या कैमरे के लेंस के माध्यम से संजो लेती। लेखन थोड़ा समय मांगता है।
अचानक से एक तोतली आवाज़ ने अपनी तरफ ध्यान खींचा।
दादा जी को खाना खाते देख एक नन्हा सा बच्चा ! उन सारी प्रक्रिया की नक़ल कर , खुद ही खाना खाने की कोशिश कर रहा था।
परिवार के बीच में हल्के -फुल्के पलों में ,सीखने की क्षमता को बढ़ा रहा था।
सबसे मुश्किल रोटी के छोटे – छोटे टुकड़े करने का काम था। उलझन बहुत ज्यादा ,और चेहरा रह -रह कर के परिश्रम के बोझ से थका सा।
बच्चे की नज़र कभी अपनी रोटी की तरफ , कभी दादा जी की रोटी की तरफ।
दादा जी खा तो अपना खाना रहे थे लेकिन ,कनखियों से ही बच्चे की तरफ ताक रहे थे। चेहरे पर सीखने की कोशिश करते हुए बच्चे को देखने का सुकून था और मुख-मुद्रा पर मुस्कान का साम्राज्य।
दर्शक की भांति खड़ी होकर विचारों से खेलते हुए सोचने लगी –
” कर लो बच्चू जी जितनी मस्ती अभी करनी है ,बस दो साल की उम्र पार करते ही तुम्हें करना होगा सभ्य और सुसंकृत समाज में प्रवेश के पहले द्वार को पार।
कितना भी रो लो चिल्ला लो ,प्ले स्कूल के द्वार करते हैं इतनी ही उम्र के बच्चों का तो इंतजार।”
“दिखेगा तुम्हें दीवारों पर रंग बिरंगे जानवरों के चित्र ,सजा होगा खेल और खिलौनों का संसार ,तब होगी तुम्हारी रंगों ,अक्षरों और आकार से पहचान। तब सीखना भी होगा और याद भी करना होगा। चंदा मामा और तारों को कविताओं के बीच में सहेजते हुए कल्पनाओं के झूले में झूलना भी होगा। फलों और सब्जियों से तब होगी तुम्हारी पहचान।
तब आएगा तुम्हें समझ ! माँ -पिता ,दादा -दादी ,भाई -बहन के अलावा भी होती है जीवन में एक शख्शियत महत्वपूर्ण जिसे कहते हैं ,टीचर “
हर दिन के कुछ घंटे बिताने होंगे अपरिचितों के बीच में ,तभी तो सामाजिक दायरा बढ़ेगा तुम्हारा।
अचानक से बर्तन गिरने की कर्कश सी आवाज़ ने ,विचारों की तन्द्रा को तोड़ दिया। पता चला दादा जी को अपने जूठे बर्तन उठा कर सिंक में रखते हुए देख ,उस बच्चे का जोश भी परवान चढ़ा। बर्तन को उठा कर चलने की कोशिश में बच्चे का शारीरिक संतुलन बिगड़ा।
व्यहवारिक जीवन में ‘अनुकरण का पाठ ‘ सीखने की कोशिश ने ही कर्कश ध्वनि को निकाला था।
गिरते- गिरते ही बच्चे ने टेबल पर रखे हुए बर्तन की तरफ इशारा किया। दादा जी ,दादा जी वो भी खाओ न। दादा जी वापस लौट कर आये। पानी से भरे हुए पात्र में डूबी हुई अपनी धवल दन्त पंक्तियों को सावधानीपूर्वक उठाये। मुख के भीतर एक और दो बार में डाला ,मुस्कुरा कर बच्चे की तरफ निहारा।
छोटा बच्चा खिलखिला कर हँस पड़ा। अपनी माँ की तरफ भागता हुआ गया। माँ – माँ दादाजी ने दाँत खा लिए अब मै भी खाऊंगा।
सारा घर जोरदार ठहाकों से गूँज उठा। छोटे बच्चे ने आश्चर्यमिश्रित भाव के साथ अपने परिवारजनों की तरफ देखा। जिद्द करने की बात शायद भूल गया ,अपने खिलौनों को एक बार फिर से जमीन में बिखेरता हुआ खुश हो गया।
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