मछुआरों के जीवन उनके संघर्ष उनकी परिस्थितियों पर आधारित एक किताब को पढ़ते समय, कुछ किस्से – कहानियों और किवदंतियों से सामना हुआ।
किवदंतियों और मानव का साथ, शायद तब से होगा जब से जीवन होगा।
जीवन सिर्फ हाड़ मांस से बने मनुष्य का ही नहीं बल्कि ,पेड़ – पौधे ,थलचर ,जलचर और नभचर का भी।
उपन्यास का एक पात्र समुद्र की तरह -तरह की आवाज सुनता और गुनता है।
शांत समुद्र के पास कान लगाकर उसकी रहस्यमयी सी आवाज सुनता उपन्यास का पात्र ,ध्यान मग्न सा हो जाता है।
अपने साथी मछुआरे से कहता है।
सुन रहा है न तू यह आवाज़ ! तू क्या सोचता है यह है लहरों की आवाज़ !
नहीं रे ,ये है सीपों की आवाज़।
दूसरा पात्र आश्चर्य के भाव के साथ अपने साथी को देखने लगता है।
यह जगह जहाँ हम खड़े हैं,यहाँ समुद्र में पहाड़ों के नीचे सैकड़ों राजाओं की दौलत छिपी हुई है।
यहाँ है मोतियों का खेत।
इस पार में हजारों छोटे -बड़े डूबे हुए पहाड़ हैं,जिनपर चिपके हुए हैं लाखों लाख सीप।
प्राचीन काल से मीनपरवा (मछुआरे) लोग ऐसा विश्वास करते हैं कि –
“इन समुद्री पहाड़ों पर चिपकी सीप मातायें !भयंकर गर्मी में मीठे पानी के लिए अपना मुँह खोलती हैं। पूर्णिमा कि रात आकाश का पानी सबसे मीठा होता है। वही पानी वे सीप बूँद बूँद कर पीती हैं। चांदनी से धुली पानी की वह बूँद ,उनके पेट में जाकर जम जाती है। ऐसे जन्म होता है मोती का। “
अनगिनत पीढ़ियों से मछुआरों ने इस कथा के साथ समुद्र और आकाश को देखा है।
थोड़ी ही देर बाद वही पात्र मोती के जन्म की कथा, वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे कहता है। जो व्यहवारिक और सामाजिक जीवन से जुडी हुई भी लगती है –
“सीप के दो सख्त छिलकों के बीच में पूरी तरह से बंद उसका कोमल शरीर होता है। ऐसा लगता है मानो गहने रखने के डिब्बे का ढक्कन।
उस ढक्कन की दरार से लगातार समुद्र का खारा पानी अंदर आता है और बाहर जाता है। इसी से सीप सांस लेता है। इसी पानी से उसको भोजन भी मिलता है। अगर इस पानी के साथ रेत का कण अंदर चला जाता है तो ,सीप को भयंकर दर्द का सामना करना पड़ता है।
यह रेत कण मांस में घाव कर देता है। हालाँकि किसी और कारण से भी घाव बन सकता है। बस, असल बात इतनी सी है कि घाव का दर्द ही मोती के उपजने का असली कारण है।
घाव के दर्द से छुटकारा पाने के लिए सीप के शरीर से एक तरह का श्राव होता है। उस रस में बहुत चूना होता है ,यह एक रसायन है। यह घाव कि जगह को एक पर्त से ढँक देता है। थोड़ी ही देर में वह पर्त जम कर सख्त हो जाती है। पर्त पर पर्त जमती जाती है। धीरे धीरे वह मटर के गोल दाने सी शक्ल ले लेती है। यह मोती है। इसपर इंद्रधनुष का रंग होता है। “
मन्त्र मुग्ध हो कर कहानी सुनता हुआ पात्र आश्चर्य के भाव के साथ पूछता है – अगर घाव और दर्द न हो तो मोती का निर्माण हो ही नही ?
दार्शनिक अंदाज में कहानी सुनाता हुआ पात्र कहता है – हाँ ,दुनिया कि यही रीत है।