सामान्यतौर पर जनमानस ऋतुओं को
पसंद नापसंद के तराजू पर तोलता है
किसी को शीत ऋतु पसंद, तो किसी को ग्रीष्म ऋतु ।
किसी को वर्षा ऋतु और मेघों का साथ पसंद ।
तो किसी को बसंती बयार पसंद ।
सच मानिये तो ! श्रेष्ठ और निम्न वाली बात
ऋतुओं के संबंध मे नही जॅचती ।
लेकिन,गूढ़ चिंता का विषय हमारी कल्पना में यह था कि
मानवीय गुणों का प्रभाव
आती जाती ऋतुओं पर भी पड़ गया
ऋतुओं पर पड़ने वाला यह असर ही
हमारी रचना का विषय बन गया
और
काल्पनिक दुनिया की सैर में
छोटी सी कहानी रच गया
युद्ध का माहौल बना हुआ था।
वार्तालाप अपनी चरम सीमा पर था।
वाक् युद्ध अपने भावों को व्यक्त करने वाली
तरह तरह की विधाओं से सजा था।
कभी लग रहा था बाद विवाद ,कभी परिचर्चा तो कभी
भाषण देता हुआ सा माहौल लग रहा था।
इतनी ज्यादा लड़ाई झगड़े के बीच मे भी
पेड़ पौधे शांति के साथ खड़े थे।
हर कोई श्रोता की भूमिका निभा रहा था।
सहमत होने पर
अपनी पत्तियों को
धीरे-धीरे हिला रहे थे।
असहमत होने पर तीव्र हवा का झोंका
माहौल की गर्माहट को दर्शा रहा था।
सारी ऋतुएँ उस जगह पर खड़ी थीं।
अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध कर रही थीं।
मौसम शीत ऋतु का चल रहा था।
इसीलिये वो प्रमुखता से दिखायी दे रही थी।
अपने पीछे बसंत ऋतु को छुपायी हुई थी।
मोटे मोटे लबादे ओढ़े हुये खड़ी थी।
अपने ऊपर सफेद रुई के फाहे जैसी बर्फ को
लपेटे हुयी थी।
आवाज उसकी गहराई लिये हुयी थी।
ऐसा लग रहा था, सर्दी जुकाम की सतायी हुयी थी।
बार बार सर्द हवा के झोंकों मे, लपेट रही थी।
बोली हमारी महत्ता सबसे अधिक होती है
हमारे समय मे सूर्य की चमक भी, ज़रा सा कम दिखती है
हर किसी को गर्म कपड़ों मे लपेटती हूँ
आध्यात्म के साथ साथ, सकारत्मकता से जोड़ती हूँ
अचानक से कूद कर बसंत ऋतु सामने आ गयी।
अपने को बसंती रंग से रंगा देख, ज़रा सा इतरा गयी।
बोली हमारे समय मे चारो तरफ प्रफुल्लता दिखती है ।
पौधों की क्यारियाँ रंग बिरंगे फूलों से सजती हैं ।
जाते जाते रंगों के त्योहार को भी, पास मे बुलाती हूँ ।
ज्ञान की देवी सरस्वती जी को भी, अपने साथ ही लाती हूँ ।
ग्रीष्म ऋतु बड़ी तेजी से सामने आयी
गर्म हवा के झोंकों के साथ बोली, हमे लोग
सबसे बेकार समझते है ।
हमारे महत्व को पता नही क्यों,नही समझते हैं ।
सूर्य की तपन हमारे समय मे सबसे ज़्यादा दिखती है ।
लंबे दिनों को लेकर आती हूँ ।
पसीने का महत्व समझाती हूँ
विषम परिस्थितियों मे भी लड़ने की बात बताती हूँ
तब तक तड़कती भड़कती, वर्षा ऋतु आयी ।
दो चार पानी की बूँदें, मेरी आँखों के सामने ही गिरायी ।
बोली मानो या न मानो ,सबसे उपयोगी ऋतु तो हम ही हैं ।
बंजर जमीन को भी उपयोगी कर देते हैं ।
सारे जलस्रोतों को लबालब भर देते हैं ।
सृष्टि मे हमारा, सबसे बड़ा योगदान है ।
चाहे काले बादल हों या, कड़कड़ाती हुयी बिजली ।
ये सब नव सृजन का ही तो आधार है ।
तभी देखा ढेर सारी पत्तियों को लपेटे हुए, पतझड़ ऋतु खड़ी थी ।
बोलने लगी, अब हम अपनी उपयोगिता अपने मुँह से क्या बताये ।
जीवन की सच्चाई को हम, सबसे अच्छी तरह से समझाते हैं ।
अब अपना अपना बड़बोलापन बंद करो ।
फालतू मे जीव जन्तुओं को मत तंग करो ।
बाकी की ऋतुएँ शांत होकर खड़ी हो गयीं ।
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Beautiful poem and magnificently penned down
Thanks😊
Such a lovely post