जीवन दिन,सप्ताह, महीने और साल के बीच में
अपनी रफ़्तार से चलता रहता है……
कस्बे, छोटे शहरों या महानगरों का हो इंसान…..
हर कोई सप्ताह के अंत का इंतजार बेसब्री से
करता हुआ दिख जाता है…..
कार्य करते हुए बीतते हुए सप्ताह के दिन…..
सामान्य तौर पर इंसान को शारीरिक और
मानसिक रूप से थका देते हैं…..
सप्ताह के अंत के पूर्व का दिन
उमंग और उत्साह को लाता है…..
शाम ढलते ही कार्यस्थलों से जनसैलाब सा
निकलता है…..
सार्वजनिक स्थल के साथ साथ सार्वजनिक परिवहन भी
सप्ताहांत में गुलजार हो जाते हैं…..
व्यक्ति का दिमाग सशरीर अपने स्वभाव के अनुसार मनोरंजन
व सुकून की तलाश में घरों से बाहर निकलता है…..
किसी को घूमना होता है, किसी को थिरकना होता है…..
किसी को दुकान या माल में जाकर सिर्फ सामान को
देखना होता है….
महानगरों में सार्वजनिक परिवहन के रूप में
मेट्रो सबसे सुगम साधन मानी जाती है…..
मेट्रो के साथ इंसान की गंतव्य की दूरियां
कम होती जाती है….
मेट्रो की चहल-पहल के बीच में भी व्यक्ति खुद में
सिमटा हुआ सा दिखता है……
गंतव्य के पास पहुंचते ही व्यक्ति की भाव-भंगिमा
बदल जाती है…..
अचानक से चाल में उत्साह के साथ साथ
चैतन्यता नज़र आती है……
खुद में सिमटा और फोन के दायरे से कुछ समय
के लिए ही सही ..बाहर निकला इंसान सामाजिक प्राणी
नज़र आता है……
छोटे-छोटे बच्चे भी फोन की दुनिया में
चहलकदमी करते हुए नज़र आते हैं…….
खिड़कियों से बाहर भागते हुए रास्ते
पेड़ पौधे और जीव-जंतु अब उन्हें नही भाते हैं…..
बचपन के कौतूहल और मासूमियत को इन
मोबाइल फोन की दुनिया ने बड़े इत्मीनान के
साथ चुरा लिया…..
सार्वजनिक स्थलों पर भी मोबाइल फोन की दुनिया में
सिमटा बचपन चिंता में डाल गया……
शायद यही कारण है कि बच्चों का बचपना खो सा गया…..
बदलते हुए समाज को आधुनिक तकनीकी का साथ मिल गया…..
मानवीय संवेदनाएं और सामाजिकता का ह्रास हो गया…..
तकनीकी के साथ आगे बढ़ता हुआ समाज
नि:संदेह विकास को तो दिखाता है……
लेकिन बचपन की मासूमियत और कोमलता
को कहीं न कहीं खोता हुआ…….
अवश्य नज़र आता है…..
(सभी चित्र इन्टरनेट से)