तस्वीरें बोलती हैं,मेरे विचार से ये बात बिल्कुल सही है।
चोरी करता हुआ बाघ तस्वीर के माध्यम से पकड़ा गया और उसके बाद अपने दुखड़े को मेरे शब्दों मे ढाल गया…..
जंगलो पर हमारा आधिपत्य चलता है….
ये बात मै नही कहता…..
सारा संसार कहता है….
कहने को तो हम बाघ है…
आदत से हम घाघ हैं…
अपने भोजन को ताड़ लेते हैं…
जंगली जानवर हो या परिंदे
भूख लगने पर हमारा शिकार होते हैं…
अब चारो तरफ देखिये….
इंसानी दुनिया कितनी बदल गयी…..
उनके खाने का दायरा बढ़ गया…..
रसोई से निकलकर बाजार तक पहुंच गया…..
हर कोई चटोरेपन के साथ फिरता है….
चटोरी जीभ को लेकर नुक्कड़ों
बाज़ार या माॅल मे घूमता फिरता है….
ये इंसान भी हर समय खाता पीता हुआ ही दिखता है….
हम तो जंगलों मे घूमते फिरते हैं….
जरूरत के मुताबिक ही अपने पेट को भरते हैं…..
भूख नही होने पर जगह से भी नही हिलते हैं….
चाहे घूम रहा हो भोजन हमारे ही आसपास
हमे नही होती जर्बजस्ती के खाने की चाह….
जंगलों पर भी इंसानों का अतिक्रमण हो रहा……
इसी कारण जंगलों की पहली वाली स्थिति नही रही
हमारे स्वभाव की भी अब पहले वाली प्रवृत्ति नही रही….
आजकल बड़ी बड़ी गाड़ियों को अपने पास डोलते हुए देखते हैं….
ज़रा सा पास से ही इंसानों को खाने का डिब्बा या पैकेट
भी खोलते हुए देखते हैं….
लालच हमारे अंदर भी आना बनता है….
लेकिन ये जंगल हमारी बात कब और कहाँ सुनता है…
अब बहुत हो गया रोज रोज का कच्चा मांस खाना…..
हमेशा खोजना पड़ता है भूख लगने पर जानवरों का ठिकाना…..
अब देखिये आज तो हमारी जीभ मे भी
चटोरापन उतर आया है….
देखता हूँ इंसानों ने इन खाने के डिब्बों मे
क्या छुपाया है…
जंगल से हम बाहर तो निकल नही सकते…
इंसानों की तरह नुक्कड़ों और बाजारों मे
मटरगश्ती कर नही सकते….
सोचता हूँ आज अपने मन की कर ही लूँ
इन खाने के डिब्बों मे से स्वादिष्ट खाने को चख ही लूँ…..
जबड़े मे जितने थैले पकड़ मे आये
उन्हें समेटता हूँ…..
चलता हूँ कहीं सुकून से बैठ कर
क्या क्या है खाने मे देखता हूँ….
0 comment
इंसान के चटोरे मिज़ाज को बेजुबान जानवरों के दृष्टिकोण से क्या खूब बतलाया है।
धन्यवाद 😊