यही होते होंगे शायद! हर एक मां के भाव, कलम के साथ……
धीमी सी कुनमुनाहट……
हाथ पांव को फ़ैलाने की चाहत……
बंद आंखों से ही रोना……
रोते रोते ही सुबकना…….
आती कभी अचानक से हिचकी……
मां के थपथपाते ही रुकती…..
सोते सोते ही मुस्कुराना……
बंद आंखों से खिलखिलाना…..
भीन्ही सी खुशबू के साथ……
हाथों का कोमल सा एहसास…..
नन्ही सी बेटी, मां की उंगलियों को कस कर पकड़ कर,जीवन के रास्ते पर चल पड़ती है…..
कितना विश्वास होता है कदम से कदम मिलाकर चलते हुये…..
दुनिया कि कोई भी मुसीबत कैसे राह में टकरायेगी, मां के हाथों की पकड़ के कारण मुसीबतें भी अपने कदमों को पीछे हटायेंगी……
एक बेटी और मां का संबंध बड़ा अनोखा होता है…..मां मे उन्हें संपूर्णता दिखाई देती है….और मां का प्यार बेटी के लिए अलग ही उमड़ता घुमड़ता है…..
नन्ही सी बच्ची शिशु अवस्था में अचानक से उलटना पुलटना शुरू करती है…. सीधे होने की असफल कोशिश में सारा घर सिर पर उठा लेती है……
किसी दिन अचानक से कोशिश करते करते बैठ जाना…..किसी दिन अपने पैरों पर डगमगाते हुए खड़ा हो जाना…..अपनी खुशी को दिखाने के लिए तरह तरह की आवाजें निकाल कर…. सारे घर का ध्यान अपनी तरफ खींचनें की कोशिश में जुट जाना…..
धीरे-धीरे तेजी से चलने की कोशिश में जुटना… कभी गिरना तो कभी संभलना …. कभी गिर कर भी चलना सीखा था…. इस बात को भूलकर जीवन की राह पर चलते जाना…..
गर्मियों की दोपहर हो या सर्दियों की दोपहर….. मां के पलक झपकते ही आलमारियों में दुपट्टे को खोजना…….और उन्हीं दुपट्टों से साड़ी पहनने की असफल कोशिश में जुट जाना….आइने का हौले से मुस्कुराना…… मेरे विचार से शायद हर लड़की अपने बचपन में दुपट्टों से खेलती है……
बेटियों के अंदर बचपन से ही एक मां छुपी होती है…… जो बीच बीच में उनके व्यहवार से झांकती हुई दिखाई देती है…..ईश्वर ने शायद कोमलता के भाव के साथ ही उन्हें जमीन पर उतारा है…..
शुरू होता है जीवन का एक नया अध्याय….. जब नन्हा पैर प्ले स्कूल के दरवाजे पर पहुंचता है…..
कुछ समय के लिए अपने परिवार से दूर खेलकूद के माहौल में कुछ नया सीखता है….
पहचानने हों रंग या आकार……भरने हो आकृतियों में रंग या गीली मिट्टी की सहायता से ढालना हो आकार…….
याद करना हो जुबानी, छोटी छोटी कविता या प्यारी सी कहानी……
बस कुछ ईंटें अपने ज्ञान की इमारत की नींव में डाल कर…….घर पहुंच कर मां के सामने सारा ज्ञान उड़ेलता है….. मां के धैर्य को ईश्वर भी परखता है……
एक अच्छे स्कूल में दाखिला कराना हर मां बाप के लिए होती है खुली चुनौती……
कईयों ने तो मांगी होती हैं दुआयें …और कुछ लोगों ने मांगी होती है मनौती……
नन्हें पांव ,आंखों में आंसू और भारी बैग के साथ स्कूल के अंदर अकेले जाते समय बच्चा पहली बार अकेला होता है……..
बार बार मुड़कर पीछे देखता है….. आधे रास्ते से पीछे लौटता है ……
ये जीवन के सफर की पहली लड़ाई होती है…. जो बच्चे ने खुद से ही लड़ी होती है ……
शुरू होती है शिक्षा की दौड़…..धीरे-धीरे बढ़ता है स्कूल से मोह ……
ढेर सारी सखी सहेलिया…..परिवार के साथ स्कूल का भी जुड़ना ……
आता है फिर से एक नया बदलाव…..स्कूल की पढ़ाई के बाद का तनाव ……
खुद को इस वृहत दुनिया से जोड़ने का समय…. जहां नयी चुनौतियां सामने खड़ी हुई दिखती हैं …..
एक बार फिर से बेटियां मां की आलमारियों के बीच में उलझती हुई दिखाई देती हैं…..
अबकी बार दुपट्टों की शामत नहीं आती बस साड़ियों पर प्यार उमड़ता है …..
एक बार फिर से साड़ी को लपेटने की कोशिश में बालमन के साथ साथ किशोर मन भी जुड़ जाता है …….आइना एक बार फिर से मुस्कुराता हुआ नज़र आता है……
मां की आंखों के सामने शिशु अवस्था से लेकर स्कूल की पढ़ाई तक का समय चल चित्र जैसा चलता जाता है……..
एक बार फिर से समय आंखों के सामने से सरकता हुआ नज़र आता है……….
(सभी चित्र इन्टरनेट से)