ये शहर – ए -दिल्ली है ज़नाब ……
चलता फिरता कम
दौड़ता भागता हुआ ज्यादा दिखता है….
हर पहर में अलग! कहानी किस्सा कहता है….
भागता दौड़ता हुआ इंसान
कहीं खुद के वाहन मे तो,कहीं सार्वजनिक परिवहन
के साथ दिखता है…..
हर कोई जीवन को जीने की
ज़द्दोज़हद मे दिखता है….
समय पर गंतव्य पर पहुँचते ही
एक अलग ही सुकून चेहरे पर दिखता है…..
ऐसा लगता है मानो युद्ध का मैदान जीत लिया…..
ट्रैफिक जाम से पहले ही
अपनी अपनी दूरियाँ नाप लिया….
हर कोई अपने अपने कार्य क्षेत्र मे जाने से पहले
सजता और सँवरता है…..
बालों के बीच मे से झाँकती हुयी सफेदी
सलीके से रंगो के पीछे छुप जाये…..
कहीं किसी कोने से झाँकती हुयी सफेदी ! नज़र न आ जाये…..
बढ़ती हुयी उम्र कहीं चुगली न कर जाये…….
यही सोच कर उम्र को,
सौंदर्य प्रसाधनों की अनेक पर्तों के बीच मे
सहेजता है…..
ये शहर -ए – दिल्ली है ज़नाब …….
हर किसी को अच्छा लगता है
कम उम्र नज़र आना …….
भागते हुए जीवन के साथ
कदम से कदम मिलाना ……
बस ज़रा सा खुद को मोबाइल की स्क्रीन
हो या हो आइना उसके दायरे
मे ही रखता है ……
ये शहर -ए – दिल्ली है ज़नाब …..
चेहरा सामने दिखता कुछ है ……
पीछे कुछ और ही कहानी कहता है ….
मुखौटों के पीछे जीवन डोलता है ….
कहीं मुस्कान, कही अट्टहास तो कहीं
ठहाकों से महफिलें सजती है …..
दिन का कोई भी समय हो
कहीं बातें पच जाती हैं,तो कहीं
लहराती हुई जुबान फिसल जाती है ….
दिखते हैं मेट्रो जैसे सुविधाजनक परिवहन के साधन …..
हर उम्र के लोग बेफिक्री से
सफर करते हुए दिखते है …..
फैशन के नये नये तरीके से रूबरू होते हैं ….
ये शहर-ए-दिल्ली है ज़नाब !
कहीं कहीं मानवीय संवेदनाएं, छलक जाती हैं…
इंसान के जैसे दिखने वाले इंसानों में भी…
इंसानियत झलका जाती है…
ज्यादातर बेपरवाह सा दिखता है…
कौन इंसान कहाँ गिरता, कहाँ संभलता है?
ये शहर ऊफ्फ! या आह! तब तक नहीं करता..
जब तक जरा सा थम कर!
दूसरों के दुःख दर्द को नहीं समझता है…
ये शहर -ए- दिल्ली है ज़नाब ……
बड़ा जिंदादिल सा दिखता है …..
हर समय लोगों के सैलाब को लेकर
भागता हुआ ही दिखता है ……