आराधना कहो,प्रार्थना कहो या इबादत कहो….
इंसान के जीवन मे इसकी अहमियत होती है क्या?
मन पर हो यदि कोई बोझ,.,.
दिमाग मे हो शुद्ध विचारों की सोच….
विकास की दौड़ मे
इन बातो को दकियानूसी मत जानो…
मानो या न मानो
आराधना कहो,इबादत कहो या प्रार्थना कहो
हमेशा काम आती है…
व्यक्ति को आत्मविश्वास से भरकर
जीवन के संग्राम मे उतारती है….
सकारात्मक सोच को कर्मों के साथ सजा कर….
विपरीत और विषम परिस्थितियों मे प्रेरित करती जाती है….
“मुंह मे राम बगल मे छूरी”वाली सोच से
खुद को परे रखकर….
सकारात्मक सोच के साथ प्रार्थना को
अपनाना होता है…
खुद को अदना समझकर, ऊपर वाले की इबादत मे
सिर को झुकाना होता है….
न झुके ऊपर वाले के दरबार मे अगर मस्तक…
अहम् ने किया हो खड़ा….
नकारात्मक सोच ने दी हो, खुद को सर्वोपरि
मानने की सीख….
इबादत,आराधना या प्रार्थना भी काम नही आती…
इंसान की नकारात्मक सोच ही उसे मृग मरीचिका
सी भरी हुई राहों मे भटकाती है…
होती है आराधना मे शक्ति…..
अगर की गयी हो निश्छल भाव से भक्ति…..
मानो या न मानो दिखने वाली
भौतिक संपदा से परे…..
बिखरा हुआ इंसान भी संवर जाता है…..
खुद का विश्वास और सकारात्मक सोच
जीवन की राह मे, आगे बढ़ने के लिए
रास्ता दिखाता है…….
सच्चे मन से की गयी प्रार्थना ,इबादत या आराधना
आत्मबल से भरपूर होती है……
नकारात्मक सोच से उपजे हुए विचारों से
कोसो दूर होती हैं …..
(सभी चित्र internet से )