भारतीय सामाजिक व्यवस्था मुख्य तौर पर
परिवार और समाज पर टिकी होती है……
दोनो की नींव आपसी सहयोग
प्यार और विश्वास से बनी होती है….
सामाजिक संबंधों का तानाबाना…..
होता है केवल, आपसी सहयोग का फसाना…
अंधाधुन्ध भागने की दौड़ …..
संबंधों को सीढ़ीयाँ बनाकर
सफल होने की होड़ ने….
समाज की नींव को हिला कर रख दिया…..
बिखरे हुए सामाजिक और पारिवारिक संबंधों
को न्यायालय के सामने खड़ा दिखा दिया….
संबंधों की डोर कहीं टूटी, तो कहीं तनी दिखती….
अपनी अपनी फरियाद के साथ….
न्याय की देवी की शरण मे दिखती…..
वर्तमान का समाज हर तरह के विवाद के लिए….
न्यायालय को ही पहली और आखिरी उम्मीद
मान कर बैठता…..
सकारात्मक विचारों से कम
लेकिन,नकारात्मक विचारों से हर समय प्रभावित दिखता……
येन केन प्रकारेण अपना पक्ष मजबूत करने के लिए…..
छल और कपट का बिछाता जाल….
ये सब देखकर न्याय की देवी
दिखती हैं,हैरान और परेशान…..
ऐसा लगता मानो कह रही हों…..
आंखों पर बंधी हुई पट्टी को खोल दूं…..
ईमान को बेच कर और आत्मा को मारकर
सामने खड़े लोगों को…..
निर्दोषों की भीड़ से अलग तो करूं…..
न्यायपालिका के सामने वो भी मजबूर
नज़र आती है……
इंसाफ के तराजू को सधे हुए हांथों से
एक बार फिर से
संभालने मे जुट जाती है…..
पैसा आज के समय में, इतना महत्वपूर्ण हो गया…..
देखते ही देखते समाज, परिवार के साथ साथ
न्याय को भी छल गया….
फिर गयी हमारी नज़र, एक बार फिर से
न्याय की देवी की तरफ……
अपने भावों पर नियंत्रण के साथ…..
आंखों पर बंधी काली पट्टी के साथ
विचार मग्न नज़र आ रही थी……
ऐसा लगा मानो बोल रही हों……
बंधी रहने दीजिए हमारी आंखों पर पट्टी…..
रहने दीजिए छल प्रपंच के दलदल में फसे हुए
समाज को देखने के संताप से दूर…..
है मुझसे भी ऊपर एक अदालत…..
जहां चलता नही धोखे का खेल…..
न है,आंखों पर बंधी हुई काली पट्टी…..
न है, धन और संबंधों के साथ छल का मेल……
(चित्र internet से )