अनुकूलता हर जीव के जीवन का हिस्सा होती है क्या?
सृष्टि के साथ जीवन चलता रहता है…..
जीवन खुद को परिस्थितियां,समय और परिवेश के अनुसार
अनुकूल करने की कोशिश करता है……
विज्ञान के अनुसार, अधिक समय तक होने वाला अनुकूलन
जीव के गुणों को ही परिवर्तित कर देता है……
बाल अवस्था जीवन की सबसे खूबसूरत अवस्था होती है…..
इस बात को सारे जग ने माना है….
बच्चे हर जीव के प्यारे होते हैं……
मासूमियत के साथ ज़रा सा चंचल होते हैं……
विज्ञान के अनुसार हर बच्चा अपने माता-पिता के
गुणों के साथ जन्म लेता है……
लेकिन जिस सामाजिक परिवेश में पलता और बढ़ता है…..
उसका उसके ऊपर आनुवंशिक गुणों के बाद भी प्रभाव पड़ता है……
रुडयार्ड किपलिंग की कहानी जंगल बुक के माध्यम से
अपनी तरफ ध्यान खींचती है…..
यह कोरी कल्पना नहीं है….
वास्तविकता के आधार पर काल्पनिकता
का ताना-बाना बुना गया है……
मोगली की कहानी हमेशा आश्चर्य में डालती है….
वास्तविकता से परे नज़र आती है…..
आज भी इस तरह के समाचार सुनाई पड़ते हैं…..
जंगलों में पले और बढ़े बच्चे संचार माध्यमों के द्वारा
दिखाई पड़ते हैं…..
विचारों के भंवर में दिमाग उलझता है…..
आनुवंशिक गुण मनुष्य के होने के बाद भी
इंसान का बच्चा, कैसे जंगल और जानवरो के बीच में
जीवित रह सकता है….
ऐसे ही नही कही गई है यह बात कि
बचपन गीली मिट्टी होता है……
जिस आकार में चाहो उसे आकार में ढल सकता है….
ममता इंसान में ही नहीं जानवरों में भी छलकती है…..
जब मोगली की कहानी में ,भेड़िया मां अपने बच्चों के साथ
मोगली को लेकर चलती है….
भेड़ियों और बंदरों ने इंसान के बच्चों को
अपने तरह से रहने के तौर-तरीके और
खतरों से निपटना सिखा कर
अनुकूलता की बात को सही सिद्ध कर दिया…..
इस तरह की वास्तविक कहानियां गहराई से सोचने
पर मजबूर करती हैं…..
कारण चाहे कुछ भी हो जब छोटे बच्चे
जंगली जानवरों के साथ रहकर उनके अनुरूप
खुद को ढाल सकते हैं…..
तो सामाजिक ताने-बाने में बालमन और किशोर मन
क्यूं अपराध की ओर खिंचा चला जाता है……
हर किसी को पता होती है यह बात…..
समाज से ही तो होता है,चरित्र का निर्माण…..
अगर सच में सामाजिक परिवेश ही आइना है….
तो बाल अपराध रोकने के लिए सार्थक प्रयास तो
हर इंसान कर सकता है….
अपराध के अंधेरों की तरफ खिंचे हुए बालमन और किशोर मन
को स्वस्थ समाज की तरफ वापस खींच सकता है…..
(सभी चित्र इन्टरनेट से)