कुछ था क्या वहाँ ? झुरमुटों का अँधेरा था…
या भूत प्रेत पिशाचों का साया था….
कुछ तो था ,अनदेखा सा अनजाना सा…
सिर्फ पत्तियों की सरसराहट से महसूस होता था..
कुछ तो था , जो शरीर को कँपकपा देता था…
अपनी उपस्थिति बताता था …
गर्मी की तपती दुपहरी हो या कड़कड़ाती हुयी..
ठंड की शाम ,मजबूत दिल वालों को भी …
हिला जाता था …
कुछ तो था वहाँ ….
‘जमींदारो’ की ही तो जमीन थी बड़ी दूर दूर तक बाँसो के झुण्ड फैले रहते थे । अभी देश स्वतंत्र भी नही हुआ था ‘क्रातिकारियों ‘का दमन होता रहता था ।रोज गोरे साहब लोगों की पैनी नजरें गाँव , कस्बों मे अपनी तीक्ष्ण नजर रखा करती थी ।
घर की बहू बेटियों को अपने-आप को पर्दे के पीछे छुपाना पड़ता था । गोरों की संस्कृति ने दबे पाँव ही भारतीय समाज की बुनियाद को हिलाना शुरू कर दिया था । शराब को घरों मे जगह मिलनी शुरू हो गयी थी , गोरे साहबों का किसी के घर का आतिथ्य स्वीकार करना सम्मान की बात समझी जाती । इन सब बातों के बीच जीवन चल रहा था ।
वो बूढ़ी आँखे अतीत मे खो गयी ,लोगों से ही तो सुना था ‘अभिशप्त जमीन ‘थी वो बाँसो के झुण्ड वाली । ये सब बताते बताते उन आँखो के पास पड़ी हुयी झुर्रीयाँ अपनी उपस्थिति दिखाने के लिये और ज्यादा उत्सुक हो जाती थी ।
उन आँखो मे भाव बड़ी तेजी से परिर्वतित होते थे । कभी डर ,अचानक से आश्चर्य , कभी-कभी खुशी भी दिखायी पड़ती थी ।अनाज के बदले बर्फ का गोला खाना ,खट्टी मीठी गोलियाँ खाना या रंग बिरंगी चूड़ियाँ पहनना होता था ।
कल भी ‘चूड़िहारिन’आयी थी लाल रंग की सारी चूड़ी खत्म हो गयी थी ,’पटीदारों’ के यहाँ शादी थी बेटी की । सब को पहना आयी ,बहू के हाथ मे कम चूड़ियाँ देखकर भड़क जाती थी बूढ़ी आवाज के साथ-साथ आँखे भी ।
कल जरूर आना ‘चूड़ीहारिन’ , एक बोरा गेहूँ और धान निकलवा कर रखा है ,ले जाना बच्चों के लिये बड़ी जोर से आवाज देकर अपनी कहानी को थोड़ा सा आराम दिया ।
हाँथ से चलने वाला पंखा अपनी गति को बातों के जोर से पकड़ता था ।सभी लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते थे और जैसे ही थोड़ा सा भय आता था, तब बच्चे हो या जवान बीच -बीच मे अपनी समस्या का समाधान खेत मे जाकर किया करते थे ।
आजादी से पहले का समय था,उस समय हिन्दू परिवारों मे भी’बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन था ।
समाज अनेक प्रकार की ‘कुरीतियों’ को ढो रहा था ।सती प्रथा ,बाल विवाह, पर्दा प्रथा का प्रचलन ज्यादा था ,महिलाओं की स्थिति दयनीय थी ।
अभी कल ही तो ब्याह कर आयी थी ठाकुरों के घर की छोटी बहू ,अचानक से लड़का तेज बुखार से पीड़ित हुआ ,जब तक कारण समझ मे आता तब तक साँसो ने शरीर का साथ ही छोड़ दिया । बहू के ऊपर लग गया ‘विधवा’होने का काला धब्बा उसके साथ-साथ ‘अपशगुनी’ भी हो गयी ।चेचक के कारण बहुत कम उम्र मे पति स्वर्ग सिधार गया ।
ठाकुरों के घर से थोड़ी दूरी पर ही तो ब्राहम्मणों का घर था उनके घर की लड़की माघ महीने मे ही तो ब्याही गयी थी पड़ोस के गांव मे ,सावन महीने तक सुहागिन न रह पायी । ससुराल वाले पौ फटने के पहले ही मायके छोड़ गये ,एक गिलास पानी पीना भी जरूरी न समझा बहू के घर का ।
वैसे भी अब कहाँ की बहू , बेटे के स्वर्ग सिधारते ही बहू ‘कुलक्षिणी’ लगने लगी । जाते जाते माँ बाप को सुना और गये “खा गयी हमारे जवान बेटे को पता नही किस मनहूस घड़ी मे ब्याह किया था हमने अपने बेटे का ” माँ बाप अपनी बाल विधवा बेटी को देख कर अपने आँसूओ को रोक नही पा रहे थे ।
अभी भी बेटी के सारे खिलौने कमरे मे रखे हुये थे ।बेटी ने अपनी कपड़े से बनायी हुयी गुड़िया को भी’ दुलहन ‘के जैसे ‘श्रृंगार ‘कराया हुआ था ।खोज रही थी वो अपनी दादी के कमरे मे सफेद साड़ी का टुकड़ा , जिससे अपनी गुड़िया को भी विधवा का रूप kmदे सके ।
ये सब देखकर माँ की छाती दुख से फटी जा रही थी । चिंता इस बात की ज्यादा थी कि माँ बाप के जिंदा रहते तो बेटी का जीवन कट जायेगा लेकिन भाई भाभी का तो कोई भरोसा नही कैसे कटेगी पहाड़ सी जिंदगी ‘फूल सी बेटी’ की ।
कुछ दिन बाद पता चला कि दामाद की मौत बहू के ‘अपशगुनी ‘होने के कारण नही प्लेग के कारण हुयी थी । घर घर की यही कहानी थी किसी के घर की बेटी विधवा हो रही थी तो किसी की बहू । जिसके घर मे महिलाओं की मृत्यु हो रही थी वहाँ अर्थी के उठते ही लड़के की दूसरी शादी की तैयारियाँ हँसी खुशी से शुरू हो जाया करती थी ।
बाहर से किसी के जोर से चिल्लाने !की आवाज आया करती थी । रोज का ये किस्सा था क्यूँकि ‘छुआछूत’बहुत ज्यादा थी समाज मे , अपने से नीची जाति वाले लोगों को “पाँव की धूल “ही समझा जाता था । थोड़ी देर मे ही गंगा जल का लोटा लिये बरामदे को पवित्र किया जाता था क्योंकि किसी नीची जाति वाले मजदूर के बच्चे ने खेलते खेलते वहाँ पर प्रवेश कर लिया था ।
उस समय मनोरंजन का कोई विशेष साधन भी नही था ।पुरूषों के लिये तो अखाड़ों मे दंगल हुआ करते थे । महिलायें घर के कामो मे ही अपने को व्यस्त रखा करती थी ।ऐसे समय मे नटों की टोली आया करती थी कस्बो और गाँव मे ।गाँव मे घुसते ही जमींदारो के चौखट पर माथा टेकना पड़ता था ।
अपना डेरा जमाने के लिये जमीन का टुकड़ा माँगना पड़ता था 4-6 महीने के लिये । माथा टेकते समय धीरे से जमीन माँगने के साथ-साथ 2-4 बोरी अनाज भी ले जाया करते थे । लेकिन एक बार डेरा जमाने के बाद उनकी समय सीमा बढ़ जाया करती थी ।
नट परिवार की महिलायें और बच्चे काफी खतरनाक करतब दिखाया करते थे । सभ्रान्त परिवार की महिलायें भी कभी कभी नटों के करतब देखने जाया करती थी।महिलाओं को बड़ा लंबा-चौड़ा घूँघट निकाल कर जाना पड़ता था , इस तरह के करतब देखने को , साथ मे बच्चों की फौज भी हुआ करती थी ।
इसी बहाने घर की औरतों को घर से बाहर निकलने को मिलता था ।उनको समझाया जाता था नट औरतों की आँखों मे देखना मत , जादूगरनी होती है वो ,सम्मोहित भी कर लेती हैं ।कुछ के अंदर तो बुरी आत्माओं का साया भी होता है ।
कई सारी नयी नवेली ‘दुल्हनों ‘की तो घर से बाहर निकलने से पहले भी नजर उतारी जाती थी और घर के अंदर घुसने से पहले भी इस तरह के तरीके अपनाये जाते थे ।
शाम होते ही उन नटों का परिवार सिमट जाता था अपने बनाये ‘बसेरों’मे । भोर से पहले उठकर उनको अपने करतब का अभ्यास भी तो करना होता था । छोटे – मोटे हथियार भी बनाने होते थे , समृद्ध घराने के लोगों के पास हथियारो की बिक्री करनी होती थी ।
देश भक्ति का जज्बा प्रबल होते ही हर युवा के पास छुपा हुआ हथियार तो होता था । गोरों के जैसे आधुनिक तो नही लेकिन काफी प्रभावी हुआ करते थे ये हथियार ।
इस बार तो बड़ी जल्दी पंचायत बैठ गयी ,गाँव मे अचानक से चोरियाँ होनी शुरू हो गयी थी । गाँव वालो का कहना था, ये सब इन नटों की ही कारस्तानी है , जल्दी इन्हें डेरा उठाने के लिये बोला जाये , जल्दी से पंचों को फैसला लेना चाहिये । सब लोग अपनी अपनी अपनी राय दे रहे थे ।
लेकिन हर बार चोरी की वारदात सिर्फ नटों के ही कारण नही होती थी , ये बात बूढ़े पंचों की अनुभवी आँखों से छुपी नही होती थी । कभी-कभी गाँव के ‘बिगड़ैल लड़के’ भी ये काम किया करते हैं। नटों को सख्त चेतावनी देकर समय पर गाँव छोड़ने के लिये बोल दिया गया ।
करतब सीखते समय बच्चों का अचानक से रस्सी से गिर कर गंभीर रूप से चोटिल हो जाना या महिलाओं का प्रसवावस्था की पीड़ा को न सहन कर पाना ही अक्सर ‘आकस्मिक मृत्यु’का कारण होता था ।
कभी कभी तो कई मौत के कारण भी अज्ञात रहे आते थे । धन के अभाव के कारण या अन्य किसी कारण से उनके डेरों वाली जमीन मे ही उन मृत शरीर को दबा दिया जाता था । कुछ दिनों मे नटों का बसेरा वहाँ से चला जाता था दूसरे गाँव या कस्बों मे ।
रह जाते थे जमीन के अंदर दबे हुये उनके परिवार के सदस्य जिनकी आकस्मिक मृत्यु! हुयी होती थी ।
‘अनुभवी आँखें’फिर से खो गयी ,क्या था उन आँखों मे डर या अंधविश्वास ? सच्चाई या झूठ?
देश तो आजाद हो गया , अधिकांश सामाजिक कुरीतियाँ भी समाप्त हो गयी ,जमीन भी आजाद हो गयी …
लेकिन क्या उन अतृप्त आत्माओं का साया आज भी है वहाँ पर ? जो समय समय पर लोगों के मन मे डर पैदा करता था……
“बाँसो के झुरमुटों का फेर था” या “उजियाली और अँधेरी रात का खेल था”
लोगों का तो यही कहना था ,कि कुछ तो था वहाँ …..
(समस्तचित्रinternetकेसौजन्यसे )
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बड़ा सुंदर चित्रण किया है आपने तत्कालीन समय का.
धन्यवाद 😊 कुछ जनश्रुति है और कुछ मेरी imagination
जनश्रुतियों पर आधारित कहानियाँ बिखरी है हमारे चारो ओर आपने उस में अपनी कल्पना मिल कर सही दृश्य बना दिया.
हाँ मुझे इस तरह की कहानियाँ लिखना भी और पढ़ना भी अच्छा लगता है 😊
Great going.
Thanx😊