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सूर्य जल्दी जल्दी अपनी छिटकी हुई किरणों को समेट रहा था….
रात का अँधियारा धीरे धीरे अपने
कदमों को आगे बढ़ाता जा रहा था……
दिन और रात की इसी अवस्था के बीच मे
“शाम” आती है….
साथ अपने बच्चों के समूह को
खेलने कूदने के लिए लाती है…..
बच्चों का समूह उछलता कूदता हुआ
“उत्साह” के साथ खेल रहा था…..
“अतिउत्साह”के कारण ही कभी गिर रहा था…..
तो कभी गिरने से पहले ही सँभल रहा था…
देखते ही देखते झूलों पर चढ़ने के लिए
सीढ़ियों से हो गया सामना….
नन्हे-नन्हे पैरों को किसी भी हाल मे
हार को नही था “स्वीकारना”…..
बिल्कुल छोटे-छोटे बच्चे जो अभी चलने के
साथ ही दौड़ना भी सीख रहे थे….
वो भी सीढ़ियों पर चढ़ने के जोश मे थे…..
उनका संघर्ष मन को “रोमांचित”कर रहा था……
आगे चढ़ता हुआ बच्चा पीछे वाले के लिए
“मार्गदर्शक” बन रहा था……
आपस का “मैत्री भाव” आश्चर्य मे डाल रहा था…. “डगमगाता” हुआ बच्चा दूसरे बच्चे को “थाम” रहा था…..
बालपन का “नि:स्वार्थ भाव”,”छल”और “कपट”से
परे दिख रहा था…..
क्योंकि ये जीवन का बचपन का दौर चल रहा था…..
जीवन के सफर मे बचपन गुज़र जाता है….
इंसान उम्र से और विचारो से कथित रूप
से बड़ा हो जाता है…..
छोटी छोटी बातें और खुशियाँ छुप जाती हैं……
क्योंकि जीवन के ऊपर अनुभवों और विचारों
की परत चढ़ती जाती है….
बचपन की सीढ़ियाँ बड़े होने पर भी मिल जाती हैं…….
पार्क के अलावा जीवन के संघर्ष मे भी नज़र आती हैं……
व्यक्ति उसपर चढ़ने की कोशिश मे जुट जाता है….
एक या दो बार गिरने पर ही हार मान लेता है…..
बस उस समय बचपन की सीढ़ियों को याद करना होता है….
एक बार फिर से सीढ़ियों पर चढ़ने की कोशिश मे
“गिरना” और “सँभलना” होता है…..
खुद के अंदर के बच्चे को जगाना होता है….
अपनी कमियों को स्वीकारते हुए
सीखने की लगन को जगाना होता है….
जीतने से पहले हार को “अस्वीकारना” होता है…..
आखिरकार संघर्ष को “विराम” मिलता है…..
व्यक्ति को सफलता का “मुकाम”मिलता है…
( समस्त चित्र internet के द्वारा )