“वर्ल्ड नो टोबैको डे” पर संचार माध्यमों ने अपनी अहमियत को दिखाते हुए तंबाकू के हानिकारक प्रभाव को समाज के सामने रखा……
अपनी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी करने की कोशिश में जोरशोर से लगा…..
“विष के समान है तंबाकू” जैसे शीर्षक समाचापत्रों मे छपे नज़र आ रहे थे…..
तंबाकू के शौकीनों को इस तरह के समाचारों के माध्यम से, दी गई सलाह भी अप्रिय या विष के समान ही नज़र आ रही थी …..
तंबाकू के उपयोग से बचाव के एक सुझाव पर
गंभीरता से आंखें ठिठक गयी ……
अक्षरश: ध्यान से पढ़ने पर मजबूर कर गयी …..
“तंबाकू नियंत्रण हेतु लोगों को शिक्षित एवम्
जागरूक बनाना होगा”…..
जागरूकता हमेशा जरूरी होती है ……
खुद के स्वास्थ्य,परिवार और समाज के लिए ……
लेकिन! धूम्रपान क्या केवल अशिक्षित लोगों के बीच मे ही फल और फूल रहा है.?
आश्चर्य में डालती है यह बात……
शिक्षित,सभ्य और सुसंस्कृत सा समाज ……
होता नही धूम्रपान की हानियों से अनजान ……
फिर क्यूँ ,धुएँ के छल्लों को उड़ाता नज़र आता……
व्यक्तिगत, बौद्धिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ समाज ……
भेड़चाल के कारण धूम्रपान जैसी चीजों को अपनाता ……
हाथ की दो उंगलियों के बीच में ……
सुलगती हुई सिगरेट हो या बीड़ी …….
आर्थिक असमानता के बीच में
अमीरी हो या गरीबी…….
धूम्रपान करते समय व्यक्ति की सकारात्मक इच्छा शक्ति……
नकारात्मक इच्छा शक्ति के पीछे, मुँह छुपाती नज़र आती है……
मानसिक रूप से मजबूत लोगों को भी नकारात्मक इच्छा शक्ति
छलती और ठगती दिख जाती है ……
भारत मे तंबाकू के इतिहास को जानने की उत्सुकता को “वर्ल्ड नो टोबैको डे”ने बढ़ा दिया…..
भारत में तंबाकू का पौधा पुर्तगालियों के द्वारा लाया गया था ……
तंबाकू के पौधे, अपने आप को विभिन्न प्रकार की जलवायु ,और भूमि में ढ़ालने के अनुकूल गुणों से भरपूर होते हैं ……
इसके कारण देश के विभिन्न हिस्सों मे इसकी सफल खेती होती है ……
भारत में तंबाकू के उपयोग का सबसे शुरुआती माध्यम हुक्का रहा……
भारत में हुक्के की शुरुआत मुगलकाल के दौरान हुई …..
लंबे समय तक यह माना जाता रहा कि, पानी के माध्यम से होनेवाले धूम्रपान से, सेहत को कोई नुकसान नही होता….
जबकि आगे चलकर रिसर्च के माध्यम से यह बात गलत सिद्ध हो गयी …..
धूम्रपान के दूसरे माध्यम सिगरेट और बीड़ी ब्रिटिशों की देन है…..
अमेरिका की स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के अनुसार, मानव सभ्यता के इतिहास में सिगरेट सबसे घातक उत्पाद है …..
सबसे आश्चर्य मे यह बात डालती हैकि सिगरेट के शुरुआती दौर मे इसे दवाई के रूप में स्वीकारा जाता था…..
असाध्य बीमारियों और धूम्रपान के बीच का संबंध 1930के दशक के बाद पता चला….
धूम्रपान से होने वाली हानि को समझाने और लोगों को जागरूक करने के लिए साल का केवल एक दिन पर्याप्त नही है …..
इसके लिए इन्हें बेचने वाली दुकानें, विज्ञापन कंपनियां,सिगरेट पैकेट डिजाइन करने वाले कलाकार भी बराबर से जिम्मेदार है …..
विकासशील देशों मे हर साल बढ़ती सिगरेट की मांग…
बढ़ते हुए बच्चों,किशोरों के लिए ,और भारतीय समाज के लिए…
पाश्चात्य देशों के समान कहीं खतरे की घंटी तो नही है…
” वर्ल्ड नो टोबैको डे” पर गंभीरता से सोचने वाली है, यह बात …..
(चित्र internet से )