घने पेड़ों की छाँव से
बाहर निकल आया हूँ…
अपने पंखों को खुले आकाश
मे फैलाया हूँ…..
ज़रा दूर तक उड़ने का
मन बनाया है…..
लेकिन मन ने बार बार
भरमाया है….
विश्वास ने ऊँचा उठाया है….
बड़े दिनो के बाद पंखों को
आजमाया है….
आकाश की ऊँचाईयों को
जाँच रहा हूँ….
फैला कर अपने पंखों को
गंतव्य की दूरियों को
माप रहा हूँ….
धवल रंग को अपनाया है….
सबल बन कर दिखाना है….
रेत पर समंदर की दूरियाँ
तय करते हुए केकड़ों
को देख रहा हूँ….
रेत की तपन से
अपनी आँखों को भी
सेंक रहा हूँ….
ऐ मृग !तू तो बड़ा शांत
बैठा यहाँ…
प्रकृति ने बनाया बड़ा सुन्दर
तेरा घर यहाँ…
अब इतना भी मत रह निश्चिंत यहाँ…
आराम से मत झपक पलकें यहाँ ….
हर आहट पर रखना नज़र..
आखिर जंगल ही तो है चारो तरफ…
ऊँचाई से चकर मकर देख
रहा हूँ….
अब ज़रा सा अपनी आँखों को
धरती की तरफ फेर रहा हूँ..
मानो या न मानो ये इंसान भी
गज़ब की चीज है..
सृष्टि की ये रचना भी
बड़ी अजीब है….
हर समय सुख,सुविधा,साधन
और स्वार्थ के चक्कर मे
यहाँ वहाँ डोलता रहता है…
अपनी सफलता के घमंड मे हमेशा
मुँह खोलता रहता है….
अबकी बार नदी की तरफ
मुँह फेर रहा हूँ..
आकाश से नाव का प्रतिबिम्ब
जल मे बनते हुए देख रहा हूँ…
बहती हुई नदी मे चलती हुई नाव
को देख रहा हूँ..
नाव को नदी का
सीना चीरकर आगे बढ़ता हुआ देख रहा हूँ….
अब आगे बढते हुए
अपने ही लक्ष्य को भेद रहा हूँ…
(समस्तचित्रhttp://www.clicksbysiba.wordpress.comके सौजन्य से)