रात की गहराई,चंद्रमा की चतुराई…
तारों का टिमटिमाना,आकाश की कालिमा…
ये सब सूर्यास्त के बाद की कहानी होती है…
कुछ जगहें ऐसी होती हैं…
जो रात मे भी दिन का बोध कराती हैं…
जगमग जगमग करके जगमगाती हैं…
ज़रा सा इठलाती है..
अपना मतवालापन दिखाती है..
जगमगाती हुई रोशनी रात मे भी जीवन का एहसास कराती है…
रात की कालिमा को चीरकर गर्व के साथ खड़ी दिख जाती है…
ऐसी जगहों का तो पूछो मत नाम…
क्योंकि महानगरों मे ऐसी जगहें है तमाम…
मुझे तो मेट्रो के साथ मेट्रो स्टेशन भा गया…
चमचम करता हुआ मेरी आँखों मे समा गया…
कितनी भागदौड़ दिखती है…
हमेशा बस आगे निकलने की होड़ दिखती है..
रोशनी के बीच मे चारों तरफ भीड़ के झुण्ड दिखे…
ज़रा सा ऊँचाई से देखा तो चारों दिशाओं मे हिलते हुए नर मुण्ड दिखे….
निःसंदेह मेट्रो सुविधाजनक होती है….
सुबह की उठी हुई बेचारी देर रात तक नही सोती है….
प्लेटफार्म पर पहुँचने से पहले जोर से चिल्लाती है…
तीव्र रोशनी फेंककर अपनी आँखें भी दिखाती है…
मेट्रो के अंदर प्रवेश करते ही भीड़ तमाम दिखती…
दिनभर के काम धाम के बाद तल्लीनता के साथ
आरामतलबी मे कभी-कभी इंसानियत भी दिखती….
हाथों मे फोन,कानों मे हेडफोन…
दिखती हर व्यक्ति की बुद्धि पता नही किस दुनिया मे गोल….
किसी के पास होती हैं बातें तमाम….
रहता नही उन्हें आस पास बैठे लोगों का ध्यान….
बस इसी कारण से होता है पास मे बैठे लोगों के कानो का बुरा हाल…
रुकते ही मेट्रो की गति जन सैलाब सा निकलता है…
एक निश्चित दिशा की तरफ बढ़ता है….
देखते ही देखते अलग-अलग दिशाओं मे जा छिटकता है…..
(समस्त चित्र internet के द्वारा )
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क्या खूब जीवंत वर्णन किया है मेट्रो की .
अगर आप ने दिल्ली मे पब्लिक ट्रांसपोर्ट का कभी उपयोग किया है तो तुलनात्मक रूप से मेट्रो का उपयोग करना काफी सुविधाजनक लगता है
और जब दिमाग ज़रा हल्का होता है तो विचारों के साथ कविता या कहानी बन जाती है …तारीफ करने के लिए धन्यवाद
जी , 1-2 बार मौका मिला है . इसलिये तो आपके जबरदस्त अभियक्ति को समझ सकी .