मानव शरीर ईश्वर की अनमोल देन होता है ….
इंसान की रूप और रंगत हमेशा आनुवांशिक गुण होता है….
मस्तिष्क की काम करने की क्षमता बढ़ाना …..
व्यक्ति की अपनी विचार शीलता पर निर्भर करता है…
जरूरी नही कि वैचारिक रूप से सशक्त
और सक्षम इंसान….. आनुवांशिकता मे इस गुण को
अगली पीढ़ी तक….. सक्रिय रूप से पहुंचा पाये…..
अकर्मठता व्यक्ति की मानसिक सोच के दायरे
को सीमित कर देती है……
दूसरी तरफ कर्मठता व्यक्ति की मानसिक सोच के
दायरे को बढ़ाती जाती है……
ईश्वर की अनुपम कृति इंसान मे यह बात
सक्रिय रूप से नज़र आती है……
मस्तिष्क के संचालन के द्वारा ही……
शारीरिक और मानसिक गतिविधियां,सकारात्मक
या नकारात्मक रूप से, चलती हुई दिखती है…..
मस्तिष्क बेचारा भी असमंजस मे पड़ जाता है…..
जब जीभ का स्वाद और ,मन की चंचलता मस्तिष्क के
निर्देशों को, अनसुना करता नज़र आता है. …..
सामान्यतौर पर मस्तिष्क के निर्देशों को अनसुना करना…..
इंसान के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनो पर
भारी पड़ता है…..
एलोपैथिक, आर्युवैदिक,होमियोपैथी के अलावा भी
तमाम तरह की चिकित्सा पद्धति ने,इस बात को अनेक
शोध के द्वारा स्वीकारा है……
जीभ के चटोरे पन और मन की अस्थिरता को
तमाम तरह की व्याधियों की जड़ माना है……
शुद्ध जल,शुद्ध वायु, शुद्ध भोजन और शुद्ध विचार….
वर्तमान समय मे मानव जीवन,और समाज को बचाने
के लिए सबसे जरूरी हो गये हैं….
मानो या न मानो,
व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य
के साथ साथ, मानसिक और शारीरिक विकास भी, सीधे तौर पर
पर्यावरण से जुड़ा होता है……
शायद यही कारण है कि, वैदिक काल की बात करो
या मुगल काल की……
या ब्रिटिश काल से लेकर वर्तमान काल की…..
शैक्षणिक संस्थानों में,पेड़ पौधों और जलस्रोतों को
विशेष स्थान मिला होता है….
शुद्ध भोजन,शुद्ध जल,शुद्ध वायु और शुद्ध विचार….
व्यक्ति की मानसिक चेतना को प्रबल करता है…..
प्रकृति और पर्यावरण के साथ मिलकर….
इंसान अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमता से परे जाकर भी….
आश्चर्यजनक तरीके से अपने कार्यों को पूरा कर सकता है…..
(सभी चित्र pixabay से )