हे शिवशंकर शंभू!
विचरते रहते हो हिमालय
की “कंदराओं” मे
हिमालय की “शिखाओं” मे
क्या करते हो तुम वहाँ पर भी
अपना “श्रृंगार” ?
देखा है शिवालयों मे दिन के
अलग-अलग पहरों मे होता
हुआ तुम्हारा “श्रृंगार” ।
मानव मन अपनी आस्था
और आराधना को तरह-तरह के
चोले पहनाता है ।
बस इसी कारण से भाँति भाँति की चीजों से
तुम्हारा “श्रृंगार” आस्था के साथ करता जाता है
हे शिवशंकर! लेते हो तुम आराधना रूपी
अपनी देखभाल का पूरी तरह से मजा ।