प्रकृति का संगीत भी बड़ा विचित्र सा होता है……
दिन का कोई भी पहर हो या रात का पहर……
हर शहर,कस्बा,महानगर एक संगीत से
गुंजायमान होता है…..
ध्यान से सुनो तो रात का अंधेरा भी
गुनगुनाता है……
कीड़े मकोड़ों की अजीब अजीब सी आवाजें
संगीत साधना में लिप्त सी लगती हैं……
वाहनों के शोर को इस संगीत से अलग रख कर
सोचो और सुनो तो……
तारों की टिमटिमाहट और चंद्रमा की किरणें
रात के अंधेरे में चमकती हुई दिखती है…..
श्यामल आकाश के मंच से धरा तक
थिरकती हुई दिखती है……
नन्हे नन्हे कीटों के द्वारा निकाली गई स्वर लहरी….
भोर की किरणों तक चलती रहती है…..
भोर की किरणों के साथ हुये उजाले
का तो मत पूछो हाल……
परिंदों ने दिखाया होता है…..
सुबह सुबह अपना कमाल…..
जहां रात का संगीत ज़रा सा शांति पूर्ण
माहौल में चलता है…….
किसी को ग़ज़ल तो किसी को मुशायरे की
महफ़िल लगता है…..
वहीं सुबह सुबह परिंदे ज़रा ज्यादा ही
जोश में दिखते हैं……
तरह-तरह की आवाज के साथ
सुनहरे आकाश के मंच पर उपस्थित होते हैं……
शुरुआत कोयल की कूक से होती है……
भोर के पहले से ही ये, अपने सुरों को साधने
में लगी दिखती है…..
ऐसा लगता है मानो अपनी काबिलियत के मुताबिक
संगीत शिक्षक की भूमिका निभा रही हो……
तमाम परिंदों ने अपने स्वर को कोरस दल में
आजमाया होता है……
किसी का संगीत सुर में तो किसी का
सुर और ताल से परे लगता है…..
बुलबुल, गौरैया, तोता,मुनिया, फाख्ता सभी
इस मनोहर संगीत के प्रतिभागी होते हैं……
परिंदों की दुनिया से अलग गिलहरियों का भी इस संगीत में
महत्वपूर्ण योगदान होता है……
परिंदों के साथ ये भी अपने सुर और ताल
को साधती हैं…….
पेड़ों की डालियों, दीवारों और दरारों में
कूदते, फांदते हुते सुरों को लय से बांधती हैं……
कई पंक्षी गायक के साथ साथ नर्तक की भूमिका
भी निभा रहे थे……
पंखों को फैलाते और सिकोड़ते समय भी
सुरों को साध रहे थे……
बड़ा अद्भुत यह एहसास होता है……
वातावरण का कलरव व कोलाहल ध्यान से सुनो तो
संगीतमय होता है…..
मानव, सुरों को साधते समय तरह-तरह के
वाद्ययंत्रों के सहारे होता है……
अन्य जीवों का संगीत बिना वाद्ययंत्रों यंत्र के भी
कर्णप्रिय होता है…….
सच में प्रकृति का संगीत भी बड़ा अजीब होता है……
हर किसी को अज़ीज़ होता है…..
(सभी चित्र इन्टरनेट से)