संबंध” शब्द सुनकर सोया हुआ दिमाग जाग जाता है। सबसे पहले खून के रिश्ते से बने हुए
संबंध याद आते हैं,जो भावनात्मक रूप से बहुत महत्वपूर्ण होते हैं,उसके बाद सामाजिक जीवन के दायरे मे बने हुए संबंध चाहे वो साथ मे काम करने वाले लोग हो ,दोस्त हो या आस पड़ोस के लोग ।
संतान का “माँ बाप से संबंध सबसे अनोखा होता है ,रंग इसका हमेशा बड़ा चोखा होता है”।
एक नन्हा सा बच्चा जब अपने कोमल हाथो ,अशक्त शरीर ,विश्वास से भरी हुई नजरों के साथ
अपने माँ या पिता की गोद मे रहता है कितना सुकून रहता है उसके चेहरे पर।
ऐसा लगता है मासूम सा चेहरा कह रहा हो दुनिया से “मै सुरक्षित हूँ इस गोद मे सारी दुनिया से बेपरवाह ज़रा सा लापरवाह”।
सिर्फ “मौजमस्ती” के लिए या अपना तनाव कम करने के उद्देश्य से या अपने अहं के चक्कर मे बनाये गए संबंधो का कोई अस्तित्व नही होता ।क्योंकि इस तरह के संबंधो मे “भावनात्मकता” की मात्रा अपनी जरूरतों की तुलना मे बहुत कम होती है,और जहाँ भावना नही वहाँ संबंध नही ।
आज के समय मे यहाँ ,वहाँ ,जहाँ ,तहाँ
बिखरे पड़े दिखते हैं सबंध…
कल के बने हुए रिश्ते नाते, स्वार्थ की राह ताकते….
देखते ही देखते ,तिनके की तरह बिखर जाते…
क्या सगे संबंधी ?क्या दोस्त? क्या आस पड़ोस?
हर कोई स्वार्थ की सूली पर लटकाने की
कोशिश मे पूरी ईमानदारी से
जुट जाते…..
इसीलिए संबंधों का बाजार, आजकल गर्म नही दिखता…
संबंध निभाते हुए लोगों को देखने चलो, तो विरला ही दिखता…
नही तो चारो तरफ सिर्फ, सन्नाटा ही सन्नाटा दिखता…
युवाओं की दोस्ती बीच रास्ते मे रुकी…..
भावनात्मक रिश्तों से अनजान वासना
की सूली पर जा चढ़ी…
इंसान का पशु पक्षियों के साथ संबंध
सबसे अच्छे से निभता….
क्योंकि वहाँ पर संबंध किसी स्वार्थ की
“बुनियाद” पर नही टिकता…
भगवान के साथ संबंध निभाने चले
तो खुद के लिए ही दुआ माँगने मे जुट गए…
रिश्ते नातों की परवाह छोड़ कर
आँखों को बंद कर के हाथों को जोड़ चले ….
मंदिर मे चढ़ावे के समय धन “अभिमान”
के साथ दिखा दिखा कर चढ़ता…
लेकिन भगवान और भक्त के सामने ये
धन और स्वार्थ कहाँ टिकता….
धन और “शोहरत”का नशा, सिर चढ़कर बोलता….
उसके सामने संबंध ,खजूर के पेड़ पर जा अटकता…..
घर की शांति और सुकून से संबंध तोड़
क्लब और पब मे शांति खोजने चले….
वहाँ पर स्वार्थ और दिखावे के नकली संबंधों
को ओढ़ते चले…
सच्चे रिश्तों और नातों से मुँह फेरकर…
पैसे और “बनावटीपन” से “संबंध” जोड़ते चले…..
अगर निभाना है ,सच्चा संबंध किसी से
तो खुद से ही सबसे पहले निभाओ….
अपनी “आत्मा”से धीरे से बोलो
ज़रा सा “निःस्वार्थ”भाव से संबंध निभाते हुए
“आइना”तो दिखाती जाओ….
अगर मिले कहीं ,स्वार्थ से परे कोई संबंध
तो कम से कम इतना तो करते जाना….
स्वार्थ और धोखे को परे रखकर
“पारदर्शिता” के साथ ,संबंधों को निभाते जाना….
क्योंकि मिलते हैं “पारखी” नजरों के तले विश्वास से
सजाये हुए “संबंध”…
((समस्तचित्रinternetके द्वारा )