जब भी किसी तस्वीर मे या पेड़ों के ऊपर पत्तियों के बीच मे या चट्टानों के ऊपर या कहीं भी शांति के साथ बैठे हुए गिरगिट को देखती हूँ तो हमेशा मुझे उसके चेहरे का “आत्मविश्वास” दिखाई पड़ता है ।
हमेशा “चैतन्य”सा दिखाई पड़ता है ।ऐसी ही कुछ तस्वीरों को देखते हुए उसमे छिपा हुआ गिरगिट बोल पड़ा और मेरी कलम चल पड़ी और कुछ शब्द लिखते गये ….
“छल”और “प्रपंच”के दलदल मे धँसी हुई” मानव जाति”
मत डालो मेरी मौन साधना मे “खलल”
जाकर अपने आप को तो लो पहले “बदल”।
हमे पता है हम “गिरगिटों”के चेहरे की गंभीरता विवश
करती है तस्वीरों मे समाने के लिए
लेकिन अभी बैठ कर “शांत मुद्रा” मे
रास्ते को “नाप” रहा हूँ।
आँखें खोलकर दुनिया को परखने के बाद
“जाँच” रहा हूँ।
बदलती हुई हवा का रूख बड़ी तेजी से “भाँप” लेता हूँ।
दूर से ही आते हुए खतरे को “आँक” लेता हूँ।
रंग बदल बदल करके जब दुनिया को देखता हूँ।
हर इंसान का बदला हुआ सा रूप देखता हूँ ।
कर रहा हूँ “मौन साधना” मेरे चेहरे की गहराइयों
को कम मत “आँकना”।
प्रकृति ने ही तो दिया है मुझे “जन्म जात” यह गुण है
जरूरत के मुताबिक रंग बदल लेता हूँ ।
अब ये मत सोच लेना की पूरी तरह से खुद को भी
बदल लेता हूँ ।
ज़रा सा ध्यान से देखिये मेरी तस्वीर को
“मधुर मुस्कान” मेरे चेहरे को “नाप” रही है।
दूर बैठे हुए शिकार को आँखों से “भाँप” रही है।
कभी आँखें खोलकर कभी बंद करके
“कीट पतंगों” के अलावा “इंसानों” को भी परखता हूँ ।
अपने ही नाम को अपने गुणों के साथ इंसानो
के ऊपर पूरी तरह से “सार्थक” होते हुए देखता हूँ ।
( चित्र http:// www.clicksbysiba.wordpress . Com के सौजन्य से )
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बहुत ही सुंदर
धन्यवाद
Nirali
कविता के माध्यम से उत्तम व्यंग. ऐसे ही लिखते रहिये.
मेरा उद्देश्य व्यंग लिखने का नही था सिर्फ गिरगिट की बातें ही लिखना था।एक बार फिर से प्रोत्साहित करने के लिए धन्यवाद