मेरी यह रचना स्वर्गीय श्री गुरूदत्त जी के उपन्यास “गंगा की धारा”को पढ़ने के बाद जन्मी है….
इस उपन्यास के सार के अनुसार, यदि राजपूत राजाओं मे परस्पर मान अपमान, और पारस्परिक ईर्ष्या व द्वेष की भावना न होती तो, शायद आज भारत का इतिहास कुछ और होता….
इस उपन्यास मे राजा और प्रजा के पारस्परिक संबंध को, शासक और शासित का न मानकर ,राजा को प्रजा के प्रतिनिधि के रूप मे स्वीकार किया गया है…
मनुष्य का यह सामान्य सा स्वभाव है कि, वह अन्य मतों की तुलना मे अपने मत को श्रेष्ठ मानता रहा है,लेकिन इतनी कट्टरता कि अन्य मतावलम्बियों को जीने का अधिकार भी न देना….
यह बात कत्तई उचित प्रतीत नही होती….
इस उपन्यास के मध्य मे, संत स्वभाव के रहीमदास जी भी अपने दोहों के माध्यम से तत्कालीन शाशक,और आपस मे लड़ते भिड़ते समाज को आइना दिखाते हुए मिलते हैं….
इतिहास…. इतिहास… इतिहास…
क्या होता है इतिहास ?
क्या कहता है इतिहास?
कुछ किवदंतियों का साथ….
कुछ गूढ़ सी बात….
कुछ वास्तविकता, तो कुछ कपोल कल्पित….
कहीं धन और बल का प्रभाव….
कहीं दिखता आतताइयों का उत्पात….
तो वहीं पर कहीं दिखता…
निश्छलता के साथ, राज्य के प्रति
सम्मान और समर्पण का भाव…..
इतिहास ही तो बताता है….
सभ्यता और संस्कृति के साथ
तमाम उतार चढ़ावों को दिखाता है…..
कहीं दिखता, किसी साम्राज्य का पतन होते….
कहीं दिखता नया राज्य उदित होते…..
कहीं ढहते दिखते,उपासना के स्थल….
कहीं बन गये,समृद्धिशाली राज्य
रेत के समंदर…..
दिख गयी, शासकों के मतों मे असहमति….
देखते ही देखते असहमति ने
युद्ध और संघर्ष की राह चुन ली….
लालच और अहम् का ,चारो तरफ प्रभाव दिखता…..
कोई शासक,अपने राज्य का
कश्मीर से कन्याकुमारी तक विस्तार करता…..
कोई अपने स्वाभिमान और, गौरव को बचाने के लिये
जंगलों मे भूखा प्यासा भटकता….
राजनीति कितनी स्वार्थ से भरी नज़र आती है….
अपनो का अपनो से ही बैर कराती है…..
इतिहास के पन्नों के अनुसार….
संत स्वभाव के रहीमदास भी व्यथित होकर….
शासकों के मध्य आपसी द्वेष और
टूटे हुये विश्वास को देखते हुये, कह जाते हैं कि….
“बिगरी बात बने नही लाख करो किन कोय
रहिमन बिगरे दूध को मथे न माखन होय”
इतिहास के अनुसार….
राजनीति की बिसात का, कोई धर्म नही दिखता….
न कोई नियम,न कानून होता है…..
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के तले…
रिश्तों का रिश्तों के माध्यम से ही, अंत होता दिखता है….
ऐसा नही है कि इतिहास सिर्फ….
नकारात्मक पलों को ही दिखाता है…..
ज्यादातर बातें और कहानियाँ….
इतिहास के पन्नों से, गुम नज़र आती हैं…..
इतिहास के पन्नों मे ही, कहीं कोई शासक धर्मपरायण….
दूसरे मतों को समझने वाला….
प्रजा के सुख और दुख का साथी भी
नज़र आता है….
जिनके लिये रहीमदास जी बोल जाते हैं…..
“जे गरीब सो हित करै धनि रहीम वे लोग
कहाँ सुदामा वापुरो कृष्ण मिताई जोग”
इतिहास को जानने का कौतूहल ……
ऐतिहासिक साहित्य की तरफ मोड़ता है…..
इस तरह के साहित्य को पढ़ने से….
कभी मन हर्षित, तो कभी व्याकुल होता है…..
इतनी सभ्यता और संस्कृतियाँ…..
हमारे समाज मे,घुल मिल गयी हैं…..
क्यों नही सामाजिक विकृतियाँ….
इतिहास के पन्नों मे ही सिमट जाती हैं……
चला आ रहा है, हजारों सालों से सत्ता का संघर्ष…..
सबक समाज, इतिहास से आज भी नही लेता…..
आँखों को बंद करके, राजनीति के खेल मे…..
उलझता हुआ सा दिखता……
(सभी चित्र internet से )