विकास का प्रभाव रोज के जीवन के हर क्षण में दिखता है……
जाने अनजाने में ही छोटी छोटी बातें, जो जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण होती हैं…उनको पीछे छोड़कर चलता रहता है……
अगर जीवन से जुड़ी हुई मामुली सी दिखने वाली चीजों को भी ध्यान से देखो तो… अचानक से कलम चल पड़ती है….
विषय वस्तु के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नही पड़ती…
रसोई बीच में ही खड़ी होती है….
पर्यावरण और समाज के ऊपर ,वनस्पतियों और खाने पीने की चीजों का प्रभाव पड़ता है…
समय की कमी, आरामतलबी और किसी भी कीमत पर आवश्यकता की पूर्ति…, रसोई पर भी अपना असर डालती दिखती है…..
आपाधापी के आज के दौर में ,प्रकृति को जांचने और परखने का समय किसी के पास नही…..
रसोई में उपयोग में आने वाली लगभग-लगभग सभी चीज़ें वनस्पतियों की ही उपज होती हैं…
इन वनस्पतियों की पैदावार कितने परिश्रम और जतन से होती है…..
इस बात को नाक सिकोड़ कर खाने की प्लेट में… खाना बर्बाद करने वाला बच्चा और युवा समाज नहीं समझ पाता ……
उन्हें नही पता होता कि पकी हुई, दाल और सब्जी में पीले रंग को लाने वाली हल्दी ,जमीन के भीतर आराम फरमाती है…..
उन्हें नही पता होता कि प्याज,गाजर आलू और शलजम के पौधे, खाने के लिए उपयोगी भाग को जमीन के भीतर ही पोषित करते हैं…..
किताबी ज्ञान औपचारिक परिचय वनस्पतियों से कराता है…..
लेकिन शायद भावनात्मक रूप से वनस्पतियों से जुड़ नहीं पाते इसलिए शायद खाने की चीजों को बर्बाद करते हुए नज़र आते हैं…..
सुविधा के मद्देनजर होम डिलीवरी से सब्जियां, बकायदा साफ की हुई, और कटी हुई आंखों के सामने दिखती है…..
जिनको सिर्फ पकाकर खाना ही एकमात्र उद्देश्य रहता है…
अगर दालों की बात करो तो उनके वास्तविक नाम की जगह, काली दाल,पीली दाल,सफेद दाल का संबोधन होता है…..
कार्मशियल खेती को अपनाने वाले एक किसान के खेत में, जब सूरजमुखी के फूलों को देखने का अवसर मिला तो, पीले रंग के फूल खिलखिलाते हुए नज़र आ रहे थे…..
सूरज की रोशनी की तरफ धीरे धीरे मुड़ते जा रहे थे….
प्रकृति के इन अनमोल तोहफों को प्रत्यक्ष रूप से देखना बहुत सुखद होता है…
बिजली के लट्टुओं के समान लटके हुए लाल लाल टमाटर, और मिर्च छोटे छोटे पौधों को ढंके हुए नज़र आते हैं……
बचपन में तरह तरह की दालों और साबुत मसालों के साथ अलग-अलग की आकृतियां बनाना…..
भिण्डी के टुकड़ों में रंगों के उपयोग से पेंटिंग करना जैसे काम भी बच्चों को वनस्पतियों और जमीन से जोड़ते थे…..
धान के खेतों से जब नन्हें नन्हें पौधों को अलग जमीन पर रोपा जाता है…..
तब उस पौधे का खुद का संघर्ष ही उसे बड़ा कर पाता है…
सोने सा रंग बिखेरती गेहूं की फसल, और बसंती रंग छिटकाती सरसों की फसल हो सब रसोई के भीतर ही तो नज़र आती है….
सब्जियों के अलग-अलग आकार और रंग अपनी तरफ आकर्षित करते हैं……
रंगों को और आकारों को पहचानने का खेल, वनस्पतियों के साथ प्रकृति के बीच में भी हो सकता है…..
सब्जियों के खेतों में अपने मोटापे से त्रस्त कद्दू ऐसा लगता है मानो अपने वजन कम करने के उपाय सोचता विचारता नज़र आता है…..
बेल वाली सब्जियां जैसे सेम और तरोई अपने हाथों की सहायता से ऊंचाइयों पर पहुंच जाती है…..
पत्ता गोभी और प्याज पता नहीं क्यूं इतने सारे कपड़ों की परत ओढ़ कर सखी सहेली नज़र आती हैं…..
हरी हरी पत्तियों के साथ तरह-तरह के साग और धनिया पुदीना अपना महत्व आयरन की जरूरत के मुताबिक बताते जाते हैं…..
बच्चों और युवाओं को “पपाय द सेलर मैन”जैसे कार्टून सीरियल के जरिए ही पालक की अहमियत बताते हैं…..
वर्तमान में तकनीकी और भागादौड़ी के इस दौड़ में…..
मुंह से वाक्य न निकाल पाने वाला बच्चा भी, मोबाइल के गेम और अप्रत्यक्ष रूप से तकनीकी को समझने की उधेड़बुन में लगा दिख जाता है…..
ऐसा नही कि बच्चों में प्रकृति से भावनात्मक लगाव में जिज्ञासा या हुनर की कमी है…..
सच बात तो यह है कि यह उनके अभिवावकों की सबसे बड़ी कमी है…..
बच्चों के अंदर सृजनात्मकता को अगर विकसित करना है, तो वनस्पतियों के साथ प्रकृति के बीच में उनका अभिवावकों के साथ जाना तो बनता है…..
बदलता हुआ समय इस बात को अपनी बुलंद आवाज में कहता है…
(सभी चित्र इन्टरनेट से)
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Thanks for reminding me of kitchen garden of my paternal home, which enriched me with some of finest experience of life.