“मिट्टी का माधो” रे तन !रे मन!
कहाँ विचरता लेकर अभिमान से भरा “अंर्तमन”…..
ज्ञान का तेज है,या शारीरिक शक्ति का बल……
चाल मे अभिमान है या, आत्मविश्वास का बल……
समझ ले पहले से ही दोनो मे दिखता
बड़ा मामूली सा अंतर…..
आत्मबल को बना ले लंबे सफर का हमसफर……
भरोसा मत कर अभिमान पर……
होता है यह धोखे का समंदर……
डुबोता है बीच सफर मे खुद के अंदर……
क्यूँ नही समझता रे मन!….
मिट्टी का पुतला सा ही तो है जीवन……
दिखता है इंसान अच्छा भला,चलता फिरता….
धन के गुरूर मे अनजानी राहों पर बढ़ चला…..
भूल कर बैठा होता है हर एक इंसान…..
जीवन तो है पल दो पल का ही तो छल….
राह मे छलते हैं मोह माया…..
छल और प्रपंच के जंगल……
छोड़ कर बनावटीपन,दिखावे और छल से भरा जीवन…..
चल कर ले पहले अंर्तमन को ही पवित्र और निर्मल…..
ऐ मिट्टी का माधो रे तन ! रे मन!…..
स्वीकार ले पहले खुद को ही सच्चे भाव से……
छोड़ दे कुविचारों की मृग मरीचिका का साथ……
वो देख ज़रा सा ही तो दूर दिख रहा है
निर्मल झील और सरोवर……
भागता कहाँ है, रे छली मन!…..
देखकर भी सामने ऊँची पर्वत श्रृंखलायें
और नीचे गहरी खाई…….
खोजता हमेशा छल प्रपंच से भरी दुनिया
मे शांति और सुकून की गहराई……
पहले खुद से ही निभा ले ईमानदारी…..
खुद को ही छल कर कब और कहाँ किसी
ने नज़रें ऊपर उठायी…..
मत सोच अगले या पिछले जन्म का जीवन…..
वर्तमान मे ही निकाल कीचड़ से भरे दलदल
से अपना मन…..
मिट्टी का माधो रे तन !रे मन!….
लेकर प्रभात की अरुणिमा को
दूर कर ले अपने मन की कालिमा को…..
फिर बढ़ चल जीवन के सफर मे…..
निर्भीक होकर सफलता की राहों पर….
( समस्त चित्र internet के द्वारा )
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WoW 😮
Thanks 😊
Supb
धन्यवाद 😊