हे ईश्वर! दिया जो तूने इस संसार को
वो तो तेरा बड़प्पन था……
अपनाया तूने जिस अपनेपन से
वो भाव कहाँ किसी खजाने से कम था…..
सब तरफ दिखे वनस्पतियों मे हरियाली…..
चारो तरफ बिखरी हो खुशियाली…..
मेरे विचार से देते समय अपनी कृपा को
तेरा सिर्फ यही मंतव्य था…..
लेकिन क्या ये तेरा सिर्फ भ्रम था…..
आखिर क्यूँ है तू इस तरह से हैरान…..
क्यूँ हो जाता है रह रह कर परेशान…..
या शायद तूने सोचा भी न था कि
इंसानों का इंसानियत से परे भी कोई गंतव्य था……
चल अभी भी नही हुआ है विलंब…..
कुछ तो काम कर ले अभी अविलंब…..
हटा देना आँखों से अविश्वास की पट्टी…..
कर देना भ्रमों के मकड़जाल से दूर…..
बैठा देना हर किसी के दिमाग मे
सकारात्मक कर्मों का फितूर…..
हर व्यक्ति करता है अपनी योग्यता
और क्षमता के मुताबिक कर्म……
है ये मेरा तुझसे एक छोटा सा अनुरोध……
पहचान लेना सच्चे मन से किये कर्मों को…..
दूर करना अविश्वास के भ्रमों को……
टेढ़ी मेढ़ी हो या कठिनाईयों से भरी हो…..
राह दिखाना वही जो सच्ची और सही हो…..
भटकाना मत कभी सच्चे हृदय से किये गये कर्मो को…..
क्योंकि मालिक की तलाश मे ही तो निकल पड़ता है इंसान…..
कर नही पाता अपने किये हुए कर्मों की सही ढंग से पहचान…..
करती हूँ तुझसे यही अरदास…..
बना लेना सज्जनों के साथ-साथ
दुर्जनों को भी अपना दास….
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बिल्कुल मेरे मन की बात कही है आपने इस पोस्ट के द्वारा।